वसंत आया तो कोकिला चली गयी! लता मंगेशकर का जिक्र आज सुबह से समाचारों में रहा तो हमें गायन के क्षेत्र में उनका किया बाद में याद आया। पहले मेरा ध्यान बच्चों-स्त्रियों से सम्बंधित भारतीय कानूनों पर जाने लगा। लोग शायद उनके दूसरे फ़िल्मी गायकों, कलाकारों से संबंधों के बारे में पढ़ना-सुनना चाहेंगे, लेकिन मेरा ध्यान रह-रह कर इसी बात पर जाता रहा कि उन्होंने तेरह वर्ष की आयु में फिल्मों में गाना शुरू किया था। आज के बाल मजदूरी से संबंधित कानूनों के पक्ष में बोलने, एडवोकेसी करने वालों की सुनें तो क्या सुनाई देगा? यही न कि किसी बच्चे से उसका स्कूल, उसके बचपन के दिन छीनकर उसे बड़ों के जैसा रोजी-रोटी, रोजगार के इंतजाम में नहीं झोंकना चाहिए?
फिर ऐसा क्यों है कि यही संवेदनाएं कभी लता मंगेशकर के लिए नहीं जागती दिखाई दी? क्या आज कोई नॉबेल पुरस्कार विजेता कहेगा कि उन्हें बचपन से ही काम करना पड़ा, जो अच्छा नहीं था! शायद नहीं कहेगा। क्योंकि जीवन में ही नहीं, मृत्यु के उपरान्त भी आप उनके पक्ष में थे या नहीं, ये उन्हें याद रहता है। या शायद थोड़ी सहानुभूति ऐसे इनामी लोगों से दिखाएँ तो कहा जा सकता है कि कालीन बुनना, होटल-रेस्तरां में काम करना तो उनके हिसाब से बाल मजदूरी होती है। फिल्मों में गाने पर भी स्कूल छूटता होगा, बचपन खो जाता होगा, ये नजर नहीं आता। ये तब है जब गाने के कई रियलिटी शो में हम सब देख चुके हैं कि गाने आये बच्चों के साथ जो बर्ताव होता दिखता है, वो उचित तो नहीं है।
वो जीवन भर एक ऐसे उद्योग में काम करती रहीं, जिसे घनघोर स्त्री विरोधी कहा जा सकता है। जब दुनियाँ भर में समान काम के लिए समान वेतन की बातें हो रही थीं उस दौर में भी “उर्दूवुड” का हिसाब किताब अलग ही था। पुरुष कलाकारों की तुलना में स्त्री, चाहे वो अभिनय में हो या गायन में, उर्दूवुड में कम पैसे पर काम करती रही। इस उद्योग में लता मंगेशकर ने जैसी जगह बनाई उससे प्रेरणा लेकर कई और स्त्रियों ने भी प्रयास किये होंगे। कैमरा चलाने का काम जो पहले शायद ही किन्ही स्त्रियों को दिया जाता था, उसमें भी स्त्रियों ने जगह बनाई। ऐसे ही मेकअप आर्टिस्ट के तौर पर जो स्त्रियों को काम करने का अधिकार, एक कबीलाई नियम के तहत नहीं दिया जाता था, उसमें तो मुकदमा लड़कर स्त्रियों ने जगह हासिल की।
लता मंगेशकर की गायकी की बात होते ही “महल” फिल्म के उनके गीत “आएगा आने वाला, आएगा…” का जिक्र भी होगा ही। इसके गीतकार नक्शब जारचवी (अख्तर अब्बास) थे, जो बाद में (1958 में) पाकिस्तान चले गए। उनसे जुड़े एक कड़वे से किस्से में लता जी बताती थी कि कोई लता जी की किसी चीज की बहुत तारीफ करे तो वो चीज लता जी तारीफ करने वाले को ही दे देती थीं। इसका नतीजा ये हुआ कि एक नीला पार्कर पेन, जिसपर लता जी का नाम खुदा था, वो नक्शब को लता जी ने दे दिया। वो लफंगा अब ऐसे लोगों को पेन दिखाता जैसे उसका लता जी से कोई चक्कर चल रहा हो। न दी हुई चीज वापस ली जा सकती थी, न सफाई देने का कोई फायदा होता। एक दिन तो नक्शब उनके घर ही पहुँच गया! इस वक्त तक लता जी के पिता की मृत्यु हो चुकी थी। उन्नीस वर्ष की लता जी पर परिवार का बोझ भी था। लता जी ने आखिर फटकार कर नक्शब उर्फ़ अख्तर अब्बास को भगाया।
इसके बाद भी नक्शब सुधरा नहीं था। आखिर एक दिन लता जी ने खेमचन्द प्रकाश से शिकायत की और उन्होंने नक्शब के आते ही उस से पेन छीना और उसे भगाया। बाद में लता जी ने वो कलम समुद्र में फेंक दी। इस घटना के काफी बाद तक भी रिकॉर्डिंग के बाद स्टूडियो से करीब बीस किलोमीटर दूर उनके घर तक लता जी को गायिका सुषमा श्रेष्ठ के पिता भोला श्रेष्ठ छोड़ने जाते रहे। इस घटना के साथ ही “कार्यस्थल पर यौन प्रताड़ना” का कानून जो 2013 में आया, वो याद आएगा ही। उनसे गीत-संगीत जैसे विषयों पर बात करते समय शायद ऐसे मुद्दों के बारे में कभी पूछा नहीं गया होगा। ये अलग बात है कि हाल के #मी_टू और कुछ वर्ष पहले के “कास्टिंग काउच” मामलों में उर्दूवुड में आईसी बातों का होना, या न होना, खासे विवादों का विषय रहा था।
लता जी के होने और न होने से सिर्फ भारतीय फिल्मों और संगीत की क्षति नहीं हुई है। ऐसे कई मुद्दे थे, जिनपर उनका बोलना एक दूसरे पक्ष की आवाज होती। दूसरा पक्ष भी दो वजहों से, एक तो केवल इसलिए क्योंकि वो स्त्री थीं, और इन मुद्दों पर स्त्री का पक्ष सुनाई देता। दूसरा ये कि उनकी विचारधारा वैसी नहीं थी जैसी कई फिल्मकारों की रही है। महबूब स्टूडियो (मदर इंडिया बनाने वाली) के निशान में जैसा एक राजनैतिक विचारधारा का हंसिया-हथौड़ा दिखता है, वैसा कुछ भी वो नहीं सोचती थीं। पारिवारिक रूप से ही सनातनी पक्ष की थीं। इसलिए भी कह सकते हैं कि दूसरे पक्ष की आवाज अब सुनाई नहीं देगी। सन्नाटा (1966) का एक गीत याद आता है, जिसे कई बार गुलजार का पहला गीत भी कहते हैं –
बस एक, चुप सी लगी है…