जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 11 सितम्बर, 2024 ::
भगवान गणेश सनातनियों के लिये सर्वप्रथम पूज्यनीय देव हैं। कोई भी मंगल कार्य करने का शुभारंभ प्रथम पूजा भगवान गणेश के बिना सम्पन्न नहीं माना जाता है। ऐसे तो भगवान गणेश का उल्लेख विभिन्न ग्रंथों में किया गया है। गणेश पुराण, शिवपुराण के अनुसार, भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि बुधवार भगवान गणेश का अवतार हुआ था। देश के विभिन्न राज्यों में भगवान गणेश का अलग अलग नाम से उपासना किया जाता है। जैसे महाराष्ट्र में गणपति बाप्पा की उपासना, आसाम में बहुला चतुर्थी एवं बिहार में गणेश पूजा के रुप में मनाया जाता है।
मुद्गल पुराण में भगवान गणेश के आठ अवतारों का वर्णन है, जिसके अनुसार भगवान गणेश, वक्रतुण्ड, एकदन्त, महोदर, गजानन, लम्बोदर, विकट, विघ्नराज तथा धूम्रवर्ण के नाम से जाने जाते है।
वक्रतुण्ड
भगवान गणेश का पहला अवतार वक्रतुण्ड का है। वक्रतुंड का अवतार राक्षस मत्सरासुर के दमन के लिए हुआ था। इस अवतार के संबंध में कहा जाता है कि देवराज इन्द्र के प्रभाव से मत्सरासुर का जन्म हुआ। मत्सरासुर शिव भक्त था, उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से भगवान शिव के पञ्चाक्षरी मन्त्र ॐ नमः शिवाय की दीक्षा प्राप्त कर भगवान् शंकर की कठोर तपस्या की। भगवान् शंकरने प्रसन्न होकर उसे अभय होने का वरदान दिया था। शुक्राचार्य ने उसे दैत्यों का राजा बना दिया था। शक्ति और पद के मद से चूर मत्सरासुर ने अपनी विशाल सेना के साथ पृथ्वी के राजाओं पर आक्रमण कर दिया था और सम्पूर्ण पृथ्वी पर आधिपत्य हो गया था। उसने पाताल और स्वर्ग पर भी चढ़ाई कर दिया था और मत्सरासुर स्वर्ग का भी सम्म्राट् हो गया था। उसके दो पुत्र भी थे सुंदरप्रिय और विषयप्रिय, ये दोनों भी बहुत अत्याचारी थे। चारों तरफ दैत्यों का अत्याचार होने लगा था। भगवान् दत्तात्रेय ने देवताओं को वक्रतुण्ड के एकाक्षरी मन्त्र (गं) का उपदेश दिया। समस्त देवता भगवान् वक्रतुण्ड के ध्यान के साथ एकाक्षरी मन्त्र का जप करने लगे, तत्पश्चात भगवान गणेश का वक्रतुण्ड रूप प्रकट हुआ। वक्रतुंड भगवान ने मत्सरासुर के दोनों पुत्रों का संहार किया और मत्सरासुर को भी पराजित कर दिया। भगवान् वक्रतुण्ड ने मत्सरासुर को अभय दान देते हुए उसे शान्त जीवन बिताने के लिए पाताल जाने का आदेश दिया।
एकदन्त
भगवान गणेश का दूसरा अवतार एकदन्त का है। इस अवतार के संबंध में कहा जाता है कि महर्षि च्यवन ने अपने तपोबल से मद (मदासुर) की रचना की। वह महर्षि च्यवन का पुत्र कहलाया। मदासुर एक बलवान पराक्रमी दैत्य था। वह समूर्ण ब्रह्माण्ड का स्वामी बनना चाहता था। शुक्राचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाया था। आचार्य ने उसे विधि सहित एकाक्षरी (हीं) शक्ति मन्त्र दिया था। मदासुर ने भगवती का ध्यान करते हुए हजारों वर्षों तक कठोर तपस्या किया। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे नीरोग रहने और निष्कंटक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का राज्य प्राप्त होने का वरदान दिया था। मदासुर ने पहले सम्पूर्ण धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित किया और फिर स्वर्ग पर चढ़ाई की। सर्वत्र असुरों का शासन चलने लगा। सर्वत्र हाहाकार मच गया था। असुर के विनाश एवं धर्म-स्थापना भगवान एकदन्त की उपासना की गई। तपस्या के सौ वर्ष पूरे होने पर मूषक वाहन भगवान् एकदन्त प्रकट हुए। उनकी चार भुजाएं थीं, एक दांत था, पेट बड़ा था और उनका सिर हाथी के समान था। उनके हाथ में पाश, परशु और एक खिला हुआ कमल था। भगवान एकदन्त मदासुर को युद्ध में पराजित किया और मदासुर से कहा कि जहाँ मेरी पूजा आराधना होगी, वहाँ तुम कदापि मत जाना। आज से तुम पाताल में रहोगे।
महोदर
भगवान गणेश का तीसरा अवतार महोदर का है। इस अवतार के संबंध में कहा जाता है कि जब कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मोहासुर नाम के दैत्य को संस्कार देकर देवताओं के खिलाफ खड़ा कर दिया। मोहासुर को विनाशक और मूषक बताया गया है। मोहासुर दैत्य-गुरु शुक्राचार्य के शिष्य था। मोहासुर को भगवान सूर्य ने सर्वत्र विजयी होने का वरदान दिया था। शुक्राचार्य ने उसे दैत्यराज के पद पर अभिषेक किया था। वह पराक्रम से तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया था। देवता और मुनिगण भगवान महोदर की उपासना किया था। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान महोदर प्रकट हो कर महोदरने मोहासुर के नगर में गए। मोहासुर ने मुनियों तथा ब्राह्मणों को धर्म पूर्वक जीवन बिताने में व्यवधान न पैदा करने का वचन दे कर दयामय प्रभु से क्षमा मांगा और भगवान महोदर ने मोहासुर की दीनता पर प्रसन्न हो कर उसे अपनी भक्ति प्रदान कर दी।
गजानन
भगवान गणेश का चौथा अवतार गजानन का है। इस अवतार के संबंध में कहा जाता है कि एक बार धनराज कुबेर भगवान शिव-पार्वती के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंचा। वहां पार्वती को देख कुबेर के मन में काम प्रधान लोभ जागा। उसी लोभ से लोभासुर का जन्म हुआ। लोभासुर अत्यन्त प्रतापी तथा बलवान था। लोभासुर दैत्यगुरु शुक्राचार्य से शिष्य बनाने का निवेदन किया था। शुक्राचार्य ने लोभासुर को पञ्चाक्षरी मन्त्र (ॐ नमः शिवाय) की दीक्षा देकर तपस्या करनेके लिये वन भेज दिया। उसने दिव्य सहस्र वर्ष तक अखण्ड तप किया। तप से प्रभावित होकर औढरदानी भगवान् शंकर ने वर देकर उसे तीनों लोंकों में निर्भय कर दिया।लोभासुर ने दैत्यों की विशाल सेना एकत्र कर पहले पृथ्वी के समस्त राजाओं को जीत लिया। फिर उसने स्वर्गपर आक्रमण कर दिया। देवताओं ने गणेश-उपासना की। प्रसन्न होकर गजानन ने लोभासुर को संदेश भेजा कि तुम गजानन की शरण-ग्रहण कर शान्तिपूर्ण जीवन बिताओ, अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।लोभासुर ने गणेश-तत्त्व को समझ लिया और शुक्राचार्य की सलाह से बिना युद्ध किए ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली और भगवान गजानन के चरणों की वन्दना करने लगा। गजानन ने उसे क्षमा कर पाताल भेज दिया।
लम्बोदर
भगवान गणेश का पांचवा अवतार लम्बोदर का है। इस अवतार के संबंध में कहा जाता है कि समुद्रमंथन के समय भगवान विष्णु ने जब मोहिनी रूप धरा तो शिव उन पर काम मोहित हो गए। उनका शुक्र स्खलित हुआ, जिससे एक काले रंग के दैत्य की उत्पत्ति हुई। इस दैत्य का नाम क्रोधासुर था। क्रोधासुर परम प्रतापी और काले रंग का था। उसके नेत्र ताँबे की तरह चमकदार था। क्रोधासुर बचपन में ही शुक्राचार्य के पास जाकर अपना परवरिश और नामकरण करने का अनुरोध किया था। शुक्राचार्य ने ही इस असुर का नाम क्रोधासुर रखा। क्रोधासुर को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त करने के लिए शुक्राचार्य ने सूर्य-मन्त्र की दीक्षा दी। उस धैर्यशाली दैत्य ने निराहार रहकर वर्षा, शीत और धूप का कष्ट सहन करते हुए कठोर तप किया। शुक्राचार्य ने उसका आवेशपुरी में दैत्यों के राजा के पद पर अभिषेक कर दिया। उसने पृथ्वी पर सहज ही अधिकार कर लिया। स्वर्ग भी उसके अधीन हो गया। इसी प्रकार वैकुण्ठ और कैलास पर भी उस महादैत्य का राज्य स्थापित हो गया। लम्बोदर से क्रोधासुर का भीषण संग्राम हुआ। क्रोधासुर के बड़े-बड़े योद्धा समरभूमि में आहत होकर गिर पड़े। क्रोधासुर दुःखी होकर लम्बोदर के चरणों में गिर गया तथा उनकी भक्तिभाव से स्तुति करने लगा। भगवान लम्बोदर का आशीर्वाद और भक्ति प्राप्त कर शान्त जीवन बिताने के लिये क्रोधासुर पाताल चला गया।
विकट
भगवान गणेश का छठा अवतार विकट का है। इस अवतार के संबंध में कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने जलंधर के विनाश के लिए उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया। उससे एक दैत्य उत्पन्न हुआ, उसका नाम था कामासुर। कामासुर दैत्यगुरु शुक्राचार्य से दीक्षा प्राप्त कर तपस्या के लिये वन में गया। वहाँ उसने पञ्चाक्षरी मत्र का जप करते हुए कठोर तपस्या की। भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये उसने अन्न, जल का त्याग कर दिया। दिन-प्रति-दिन उसका शरीर क्षीण होता गया तथा तेज बढ़ता गया। दिव्य सहस्र वर्ष पूरे होने पर भगवान शिव प्रसन्न हुए। उसने ब्रह्माण्ड का राज्य तथा अपनी भक्ति प्रदान करने और अपने को बलवान, निर्भय एवं मृत्युजयी होने का वरदान मांगा। समस्त दैत्यों के समक्ष शुक्राचार्य ने कामासुर को दैत्यों का अधिपति बना दिया। सभी दैत्यों ने उसके अधीन रहना स्वीकार कर लिया। उसने रावण, शम्बर, महिष, बलि तथा दुर्मद को अपनी सेना का प्रधान बनाया और उसने पृथ्वी के समस्त राजाओं पर आक्रमण कर उन्हें जीत लिया। कामासुर ने कुछ ही समय में तीनों लोकों पर अधिकार प्राप्त कर लिया। मयूर-वाहन भगवान विकट ने देवताओं के साथ कामासुर के नगर को घेर लिया। कामासुर भी दैत्यों के साथ बाहर आया। भयानक युद्ध हुआ और युद्ध में कामासुर के दो पुत्र शोषण और दुष्पूर मारे गये। भगवान विकट ने कामासुर से कहा कि तू जीवित रहना चाहता है तो देवताओं से द्रोह छोड़कर मेरी शरणमें आ जा। अन्यथा तुम्हारी मौत निश्चित है। कामासुरने क्रोधित होकर अपनी भयानक गदा भगवान् विकट पर फेंकी। गदा भगवान् विकट का स्पर्श किये बिना ही पृथ्वी पर गिर गया। कामासुर मूर्छित हो गया। उसके शरीरकी सारी शक्ति जाती रही। तब उसने भगवान विकट की शरण में आ गया।
विघ्नराज
भगवान गणेश का सातवां अवतार विघ्नराज का है। इस अवतार के संबंध में कहा जाता है कि एक बार पार्वती अपनी सखियों के साथ बातचीत के दौरान जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। पार्वती ने उसका नाम मम (ममता) रख दिया। वह माता पार्वती से मिलने के बाद वन में तप के लिए चला गया। वहीं उसकी मुलाकात शम्बरासुर से हुई। ममतासुर को शम्बरासुर ने समस्त आसुरी विद्याएँ सिखाई और उन विद्याओं के अभ्यास से ममतासुर को सारी आसुरी शक्तियाँ प्राप्त हो गई। इसके बाद शम्बरासुर ने उसे विघ्नराज की उपासना करने को प्रेरित किया। ममतासुर केवल वायु पर रहकर ध्यान तथा जप किया और विघ्नराज से ब्रह्माण्ड का राज्य माँगा। ताकि युद्ध में कभी कोई विघ्न न हो और भगवान् शिव आदि के लिये भी सदैव अजेय रहूँ। शुक्राचार्य ने ममतासुर को दैत्योंका राजा बना दिया। ममतासुर अपने पराक्रमी सैनिकों द्वारा पृथ्वी और पाताल को जीत लिया। फिर स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर ममतासुर शासन करने लगा। भगवान विघ्नराज ने नारद माध्यम से ममतासुर संदेश भेजा कि तुम अधर्म और अत्याचारको समाप्त कर विघ्नराजकी शरण-ग्रहण करो, अन्यथा तुम्हारा सर्वनाश निश्चित है। शुक्राचार्य ने भी उसे समझाया, पर उस अहंकारी असुरपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। विघ्नराज क्रोधित होकर अपना कमल असुर सेना के बीच छोड़ दिया। कमल गन्ध से समस्त असुर मूर्छित और शक्तिहीन हो गये। ममतासुर काँपता हुआ विघ्नराज के चरणों में गिर पड़ा और उनकी स्तुति करके क्षमा माँगी।
धूम्रवर्ण
भगवान गणेश का आठवां अवतार धूम्रवर्ण का है। इस अवतार के संबंध में कहा जाता है कि एक बार भगवान ब्रह्मा ने सूर्यदेव को कर्म राज्य का स्वामी नियुक्त कर दिया। राजा बनते ही सूर्य को अभिमान हो गया। उन्हें एक बार छींक आ गई और उस छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उसका नाम था अहम। अहम (अहंतासुर) दैत्यगुरु शुक्राचार्य से गणेश-मन्त्र की दीक्षा प्राप्त कर भगवान गणेश का ध्यान तथा जप किया और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर राज्य, अमरत्व, आरोग्य तथा अजेय होने का वर माँगा। शुक्राचार्य ने सम्पूर्ण असुरों को बुलाकर उसे दैत्यों का स्वामी बना दिया। अहंतासुर ने भयानक नर-संहार कर पृथ्वी अधिकार में कर लिया। फिर असुर ने स्वर्ग पर आक्रमण किया। अहंतासुर देवताओं, मनुष्यों और नागों की कन्याओं का अपहरण कर उनका शील-भंग करने लगा। सर्वत्र पाप और अन्याय का बोलबाला हो गया। धूम्रवर्ण ने देवर्षि नारद को दूत के रूप में अहंतासुर के पास भेजा और धूमवर्ण गणेश के शरण-ग्रहण कर शान्त जीवन बिताने का सन्देश दिया। अहंतासुर सन्देश सुनकर क्रोधित हो गया। भगवान धूम्रवर्ण ने क्रोधित होकर असुर सेनापर अपना उग्र पाश छोड़ दिया। उग्र पाश ने असुरों के गले में लिपट कर उन्हें यमलोक भेजना शुरू कर दिया। चारों तरफ हाहाकार मच गया। निराश अहंतासुर शुक्राचार्य के पास पहुँचा। शुक्राचार्य उसे धूम्रवर्ण की शरण लेने की प्रेरणा दी। अहंतासुरने भगवान धूम्रवर्ण के चरणोंमें गिरकर क्षमा माँगी।
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