ऐतिहासिक और पौराणिक ग्रंथों में कुछ पात्र ऐसे भी हैं जो सशक्त चरित्र होने के बावजूद बिसरा दिए गए या अल्प चर्चित होकर रह गए। साहित्य विमर्श के अंधकक्ष में डाल दिए गए ऐसे पात्र पुरुष भी हैं और नारी भी! यशोधरा उन पात्रों में से एक है। ऐसे विस्मित-अल्प चर्चित पात्र पर एक रोचक और ज्ञानवर्धक पुस्तक की रचना के लिए अनघा जोगलेकर प्रशंसा और बधाई की पात्र हैं। व्यक्ति आता है, जाता है, साम्राज्य बनते हैं और नष्ट होते रहते हैं किंतु किसी गांव-शहर की मिट्टी नहीं बदलती। वह वहीं रहती है चाहे सदियां बीत जाए या सहस्त्राब्दियाँ। ‘यशोधरा’ कथा का कथा-वाचक कपिलवस्तु को बनाकर लेखिका ने एक नूतन और श्लाघ्य प्रयोग करने का प्रयास किया है। यहाँ कपिलवस्तु को साम्राज्य अथवा नगर नहीं बल्कि वहां की मिट्टी का प्रतिरूप बनाकर प्रस्तुत किया गया है।
पुस्तक का प्रारंभ ही यशोधरा के स्वाभिमानी और सशक्त व्यक्तित्व का आभास करा जाता है। बचपन के अनेक प्रसंग उसके भावी जीवन का पूर्वाभास देते रहते हैं। बालपन में चोट के कारण उसके पाँव से बहते रक्त देख सिद्धार्थ को यशोधरा के प्रति स्नेहवाचन और इस पर देवव्रत का नारी की हीनता प्रदर्शित करते यशोधरा के उपहास ने उसके अंतर के नारी को जगा दिया। आग्नेय दृष्टि से देखती हुई, किसी से बिना कुछ कहे उसका राज परिवार से निकल जाना उसके स्वाभिमान और सशक्तता को उद्दीपित कर गया। जिस नारी का बालपन ही इतना स्वाभिमानी और सशक्त हो, उसका भावी जीवन कैसे दृढ़ और प्रबल होगा, लेखिका इसकी झाँकी स्पष्ट रूप से प्रकट करने में सफल रही हैं।
पाँव में घाव का कष्ट लिए जब यशोधरा अस्वस्थ सिद्धार्थ का हाल-चाल जानने राजमहल आती है और महारानी से स्त्रियों की निर्मलता के संबंध में प्रश्न करती हैं तो दुर्गा, काली, द्रौपदी आदि के उदाहरण देकर महारानी उसे स्त्रियों की सबलता के प्रमाण देती हैं। उसी समय यशोधरा के मानस से द्वंद्व मिट जाता है और उसकी जीवनधारा किस दिशा में प्रवाहित होगी, यह उसके मानस में शाश्वत रूप से इंगित हो जाता है।
दासी पुत्री को उसके अपने पिता द्वारा ही बेच दिया जाना, पुरुषों द्वारा पत्नियों पर पारिवारिक अत्याचार और ऐसी ही अनेकानेक छोटी-मोटी घटनाएं यशोधरा के स्वाभिमानी और विद्रोही मन को हवा देती रहें। और जब पुत्र जन्म के पश्चात यशोधरा को बिना बताए, उससे बिना मिले ही सिद्धार्थ वन गमन कर गए तो उसका अंतर-मन अपनी कमियों और सिद्धार्थ के प्रवासन की मीमांसा करने लगा। यशोधरा को बिना सूचित किए उनका वन जाना, यशोधरा के प्रेम का, समर्पण का, पत्नी-धर्म का, उनके प्रति आदर-सम्मान और ममत्व का स्पष्टतः अपमान है। जैसी स्थिति यशोधरा की है, उस अवस्था में कोई अन्य स्त्री होती तो वह टूट कर बिखर जाती किंतु अनघा की यशोधरा तो अलग ही मिट्टी की बनी है। लेखिका ने यश के इस रूप का बड़ा ही सम्यक और मनोवैज्ञानिक चित्रण प्रस्तुत किया है। यशोधरा ऐसी अवस्था में और विवेकशील, दृढ़-निश्चयी और स्थिरमना होकर उभरती है और विभिन्न स्थलों पर विभिन्न प्रकार से, विभिन्न संदर्भों के माध्यम से उसकी मां पमिता भी यशोधरा के स्त्रीमन की प्रखरता और दृढ़ता को संबल प्रदान करती है। लेखिका की लेखनी ने इन सूक्ष्म बिंदुओं के निरूपण में अपनी सिद्धहस्तता प्रमाणित की है।
राजमहल की सुख सुविधाओं का परित्याग कर वनवासिनी-योगिनी की तरह रहना, जैसे जंगल में बुद्ध रह रहे हैं, आत्मरक्षार्थ देवव्रत से सिंहिनी की भांति जूझ पड़ना, महाराज शुद्धोधन से साग्रह निवेदन कर राज्य से दास प्रथा की समाप्ति करवाना, अपनी दासी का उसके मनचाहे व्यक्ति से विवाह करवाना आदि यशोधरा के सशक्त चरित्र के स्वर्णिम पहलू हैं, पराकाष्ठा है। बुद्ध के राजमहल आने पर अपने स्वाभिमान की रक्षा करती हुई उसका अपने कक्ष से बाहर जाकर बुद्ध से ना मिलना; किंतु उसके चरित्र की महानता उस क्षण प्रकट होती है जब उसका ओज बुद्ध को उसके सामने खींच लाता है। बुद्ध को ही उससे मिलने आने पड़ता है,वह उनसे मिलने नहीं जाती। वास्तव में इंद्रजीत बुद्ध को यशोधरा के ओज से प्रभावित दिखाकर लेखिका ने उसके नारीत्व को हिमालय की ऊंचाई देने का प्रयास किया है। किंतु यशोधरा का यश हिमालय की ऊंचाई से ऊपर अंतरिक्ष में सितारों से भी आगे पहुंचता हुआ महसूस होता है जब अपने अधूरे बुद्ध को संपूर्ण बुद्ध बनाने के लिए यशोधरा स्वयं भिक्षुणी बन जाती है अपितु अपने पुत्र राहुल को भी बुद्धत्व में समाहित कर देती है- संघम शरणम गच्छामि।
पुस्तक के आद्योपांत अवलोकन से, लेखिका के विषय वस्तु के प्रति गहन अध्ययन और शोध पर सशक्त पकड़, सूक्ष्म बिंदुओं की मनोवैज्ञानिक व्याख्या करने की कुशलता और पाठकों को कभी भी एकरसता और उबाऊपन के निकट न आने देने की क्षमता दृष्टिगोचर होती है। सिर्फ एक स्थल पर जब बुद्ध के सारथी पर यश कषाघात करती है, वह यश के स्वभाव और चरित्र से मेल खाता नहीं दिखता, भले ही ऐसी घटना किसी पूर्व पुस्तक में वर्णित हो, सामान्य रूप से परिस्थिति भी तज्जन्य हो, आज का पाठक इस तथ्य को स्वीकार करते समय मानसिक द्वंद्व में पड़ता दृष्टिगोचर होता है। वैसे लेखिका की भाषा प्रांजल है, शब्दों के चयन समकालीन हैं और घटनाओं की प्रस्तुतीकरण की शैली भी सुरुचिपूर्ण है। समग्र रूप से पुस्तक रोचक बन पड़ी है, एक बार उठा लेने के पश्चात पुस्तक को समाप्त किए बिना पाठक चैन महसूस नहीं करता। ऐसी सुंदर कृति के लिए लेखिका अनघा जोगलेकर को धन्यवाद एवं लेखन क्षेत्र में और बेहतर करने हेतु कोटिशः शुभकामनाएं।
पुस्तक:यशोधरा
लेखिका: अनघा जोगलेकर
पृष्ठ:175 ( पेपरबैक)
मूल्य:250
प्रकाशक:कौटिल्य बुक्स
उपलब्धता: अमेजन
समीक्षकीय प्रयास: तृप्ति नारायण झा