शिखा शर्मा की समीक्षा
चंद्रशेखर आज़ाद से पहला परिचय हुआ विद्यालय में। नैतिक विज्ञान, हितोपदेश, राष्ट्रप्रेम को साक्षात करता हुआ एक चरित्र जो इतिहास के पन्नों से जीवंत सा होकर जिंदगी जीने का सलीका सिखा गया। आज़ाद के व्यक्तित्व में एक ऐसा आकर्षण था जो अभी तक मानस पटल से उतरा नहीं है।
“आज़ाद हूँ आज़ाद रहूँगा” एक वचन जो चंद्रशेखर आज़ाद खुद को दे देते हैं तो फिर उसे अंतिम श्वास तक निभाते हैं। पर आज तक जिसने भी आज़ाद को अपनी कहानियों का हिस्सा बनाया है उन्होंने बस उनके इस एक कथन और उनकी मृत्यु पर सहानुभूति बटोरने की कोशिश की है।
डॉ मनीष श्रीवास्तव जब “क्रांतिदूत” लिखने का मन बनाते हैं और जब पुस्तक हमारे हाथ में आती है और हम पढ़ना शुरू करते हैं तब पहले ही अध्याय में वे लिखते हैं
“आंख बंद करता हूं तो सुनाई देता है “मैं” नहीं “हम”, मनीष”
तब ना चाहते हुए भी आंखें भीग जाती हैं और लगता है कि इस लेखन की यात्रा को मनीष जी के साथ हम सब ने भी जी लिया है।
मनीष जी 10 पुस्तकों का एक संग्रह भी लिख डालते हैं और यह भी कह देते हैं कि हजार पुस्तकें भी इन दस्तावेजों के साथ न्याय नहीं कर सकती। इस पूरी यात्रा में ऐसा लगता है जैसे मनीष जी ने धूप अपने हिस्से रखी है और उनकी कन्नी उंगली पकड़कर हम भी इस यात्रा में साथ हो लिए हैं। हमारे हिस्से आई है “छांव”।
रानी सा का झाँसी पर जो ऋण था उसे चुकाते हैं “मास्टर रूद्र नारायण सिंह” और मास्टर जी ने जो ऋण आने वाली पुश्तों पर चढ़ा दिया है उसे उतारने की कोशिश करते से दिखते हैं, डॉ मनीष श्रीवास्तव। हम तो इस ऋण को उतारने की कल्पना मात्र से ही घबरा जाते हैं। इतिहास के धुंधले पन्नों से बड़ी चालाकी से मिटाए गए यह चंद किरदार क्रांतिदूत में जीवंत हो उठते हैं।
अनेक बार इन किरदारों पर बात हुई है, कई कहानियों के पात्र बने हैं यह पर क्रांतिदूत एक ऐसे दस्तावेज की कहानी है जिनमें यह क्रांतिकारी सजीव हो उठे हैं। मस्ती मजाक करते हुए देश पर कुर्बान हो गए हैं। सारी दुनिया यह मानती है कि भारतीय सेना “शौर्य की परचम गाथा” का मानवीकरण है। पर शौर्य की इस नींव को ढूंढ लाए हैं, मनीष जी। काकोरी कांड से शुरू होती है यह दास्तान जो हम सब ने पहले ही सुनी पढ़ी है तो लगता है उसमें नया क्या है। पर उसके बाद की कहानी तो पूर्वजों ने सुनाई ही नहीं कभी झाँसी ने आज़ाद को गोद में छुपा लिया था और मास्टर जी ने बड़े भाई की तरह आज़ाद को पनाह दी अपने घर में। किताब पढ़ कर समझ आया कि जिन लोगों के नाम तक नहीं पता है हमें उन्होंने अपनी जिंदगी को पल-पल खतरे में डालकर क्रांतिकारियों की देह में श्वास फूँकी थी। कितने ही लोगों का बलिदान शामिल है इस आज़ादी में। राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत जीवन सबसे कठिन होता है पर उस जीवनी को पढ़कर आंसू भी बहते हैं और गर्व से मस्तक आकाश की ओर भी उठ जाता है। यदि हम अपने काम को ईमानदारी से करते हैं, और गद्दार नहीं हैं तो हम भी स्वयं को क्रांतिकारियों के वंशज कह सकते हैं।
आज़ाद की प्रथम मुलाकात मास्टर जी से हो या उनके तीन तरंगों से, मनीष जी ने ऐसी खूबसूरती के साथ सादे शब्दों और दमदार डायलॉग के साथ संजोया है कि आप आंखें नम किए बिना आगे नहीं पढ़ पाएंगे। शठे शठे में “अहिंसा परमो धर्म:” का जवाब जो मास्टर जी शास्त्रों से शब्द उधार ले कर देते हैं उसमें तो ऐसा लगा जैसे आज़ाद के साथ वहीं तखत पर बैठकर हम भी हँस रहे हो। “आज़ाद विदुर नीति के पक्षकार हैं”, इस एक पंक्ति पर उपन्यास लिखे जा सकते हैं।
आज़ाद तो पुलिसकर्मियों के सामने भी हंसी ठिठोली कर लिया करते थे। कितना संयम और कितनी कुशलता रही होगी उनमें जो भी किसी से डरते नहीं थे।
संयम से याद आया, आज़ाद के हरिशंकर ब्रह्मचारी बनने की कहानी पहली बार पढ़ी। मास्टर जी का हम पर यह उपकार ही था जो उन्होंने आज़ाद को एक ऐसे स्थान पर अज्ञातवास में जाने को कहा जहाँ से जब वे निकले तो संयम से परिपूर्ण होकर निकले। केवल इसलिए नहीं क्योंकि वे श्री रामचंद्र की सेवा में थे, बल्कि इसलिए क्योंकि वहाँ उनके हाथ बंधे थे और जब व्यक्ति के हाथ नियति बांध देती है उस समय दिमाग तेज दौड़ने लगता है। संयम आ ही जाता है। बंधे हुए आज़ाद, आज़ाद होने की तैयारी में थे। आज़ाद को रोक पाना अब असंभव था।
और इन सब के बीच अचानक से मनीष जी एक पैराग्राफ लिखते हैं, जिसने मुझे पाठक और लेखक दोनों ही रूपों में भावविभोर कर दिया।
“जल्दी करते हैं एक और धमाका।” ब्रह्मचारी जी ने बलवंत के कान में धीरे से कहा।
मास्टर जी दूर से खड़े भारत मां के इन जांबाज सपूतों को भरी भरी आंखों से देख रहे थे।
इसके बाद प्रश्न 90 पर मनीष जी ने बलवंत का जो परिचय दिया है उस पर मेरी लिखी आज तक की हर पंक्ति कुर्बान। इस धमाके को पढ़ने के लिए आपको पुस्तक उठानी ही होगी।
मेरी तो ख़ैर बस एक ही शिकायत है, पुस्तक एक सांस में गटक ली है। अभी भी मैं ब्रह्मचारी जी और बलवंत के धमाके के इंतजार में हूँ। अंत सबको पता है पर क्रांतिदूत पढ़ने का असल मजा तो यात्रा में है। ये ही गंतव्य लगता है। अब इंतजार करेंगे तो शिकायत भी होगी, पर मैं जानती हूँ कि इंतजार का फल मीठा ही होगा।
आज़ाद अज्ञातवास से आग आज़ाद हो चुके हैं, पर हम अब तक जिस अज्ञान के अंधकार में कैद हैं, उससे निकालने की एक मासूम कोशिश का नाम है क्रांतिदूत और यह शुभ कार्य हुआ है डॉक्टर मनीष श्रीवास्तव जी के कर कमलों द्वारा।
माँ सरस्वती मनीष जी के शब्दों पर कृपा करें व क्रांतिदूत जन जन तक “सत्य परख” की क्रांति जगाने का कार्य करें, ऐसी मेरी शुभकामनाएं हैं
साधुवाद!