इर्ष्यावश पड़ोसी कोस सकता है, ताने मारने के लिए सास, चुगली करने के इरादे से सहकर्मी कोसते हैं, किन्तु जो निस्वार्थ भाव से अकारण ही कोसे वो लेखक का व्यंग ही होगा। किताब के बारे में ये जानकारी पहले ही पन्ने पर थी और जब हमने इस ज्ञान से लैस होकर पन्ना पलटा तो पता चला कि ये किताब विलुप्त होते उन प्राणियों को समर्पित है जो हिंदी किताबें भी खरीदकर पढ़ते हैं। हमने किताब का कवर वापिस पलटा और “कोस कोस शब्दकोष” लेखक का नाम दोबारा, राकेश कायस्थ, पढ़ा। आश्वस्त हुए, किसी राजनैतिक पार्टी के प्रमुख का गांधी जी को चतुर बनिया कहना भी याद आया।
फिर याद आया कि गांधी जी “उचित मूल्य देकर” क्रय की गई वस्तु को ‘खादी’ कहते थे। भले हमने गांधी जी तस्वीरों वाले कागज़ के टुकड़ों के बदले ये किताब नहीं ली, लेकिन इसे इनाम में पाने के लिए हमने कम पन्ने काले नहीं किये हैं। निस्संदेह गांधीवादी सिद्धांतों से इसे उचित मूल्य देकर खरीदा गया है। आगे पलटने पर अनुक्रमाणिका दिखी और पता चला कि किताब में उतने ही अध्याय हैं जितने प्रमुख विपक्षी दल के मुखिया के बिन बताये छुट्टियों पर जाने के कारण लोकसभा के विपक्षी बचते हैं।
अध्याय के नाम ऐसे थे कि लगा चुनावी दौर के कॉल ड्रॉप्स के बीच किसी पार्टी का प्रचार वाला फ़ोन आया हो। एक भी राजनैतिक जुमला नहीं था जिसे बख्श दिया गया हो। बीच बीच में ‘मीटिंग’, ‘मूर्खता’, ‘उधार’, ‘फेसबुक’, और ‘रद्दी’ पढ़कर याद आया कि इस किस्म के व्यंगों का दौर हिंदी साहित्य से शायद जोशी जी के दौर के साथ ख़त्म हो गया। अस्सी के दशक के बाद से ऐसे विषयों पर लिखा भी कम जाता है, फिर सवाल है कि छापता कौन ? ‘चुंबन’ और ‘हंसी’ जैसे शीर्षकों ने ढलती जवानी के साथ ही याद दिला दिया कि अख़बारों का दौर ‘ख़बरों के व्यापार’ में बदल गया है।
प्रचार देने वालों के हुक्म से अखबार में क्या नहीं छपेगा, ये तय हो जाता है। सरकारी हुक्म राईट की साइड दबाते हैं तो संपादक के निजी राजनैतिक रुझान, वाम पार्श्व से, बीच में लेखक सिकुड़ा सा अंट जाए, या पिस जाए। ‘अंदर का रावण’ गले में ‘महापुरुष का मफ़लर’ बाँधने पर अमादा है, ‘मानहानि’ के मामलों में मांगी जा रही माफ़ी से हैरान ‘आम आदमी’ है। ‘संसद’ प्रोविडेंट फण्ड पर ब्याज दर घटा कर ‘बुढ़ापे की लाठी’ छीनने पर अमादा है। ‘पराया धन’ कहीं ना कहीं ‘दंगे’ की वजह बन गया है, ‘अच्छे दिन’ का जिक्र भी ‘मूर्खता’ है। मेरे इस आलेख को आप ‘परोपकार’ मान सकते हैं, लेकिन शायद ‘कोस कोस शब्दकोष’ के लेखक को इसे पढ़कर ‘हंसी’ ना आये।
छोटे छोटे ऐसे ही व्यंगों की ये किताब डेढ़ सौ पन्ने से कम की है (144 में सिमट जाती है) और इसकी भाषा रोजमर्रा के बोलचाल की ही भाषा है। किसी उबाऊ ‘मीटिंग’ से लौटते वक्त ये अच्छी साथी होगी, जो नौकरीपेशा रोज मेट्रो में सफ़र करते हैं उनके लिए भी अच्छी साथी होगी। कब कौन सा पन्ना पढ़ा, बीच का कोई हिस्सा पहले, या आखरी व्यंग सबसे पहले पढ़ लेने से तार टूटने जैसा एहसास नहीं होगा। स्थापित आलोचक शायद ‘व्यंग’ को गंभीर साहित्य नहीं मानते, व्यंग उन्हें चकोटी काट जाता है, शायद इसलिए। मेरे ख़याल से नयी पीढ़ी के हिंदी पाठकों को ये किताब सहज-सुपाच्य लगेगी। ‘कोस कोस शब्दकोष’ फुर्सत को बेकार खर्च होने से बचाने का राकेश कायस्थ का एक अच्छा बहाना है।