“एक झूठ को बार-बार बोलने से वह सच बन जाता है, और उसी झूठ को तर्क पूर्ण ढंग से लिख देने पर इतिहास।” यह वामपंथियों के वैचारिक विमर्श की सरलतम और सटीक व्याख्या है। – फेसबुक पर मृत्युंजय मिहिर जी की पोस्ट में लोकायत की समीक्षा
कट्टर वामपंथी लेखक देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय अपनी पुस्तक #लोकायत में अपने विशिष्ट हिंदू वैमनस्य के चलते गणपति की पूजा को इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि आम हिंदू या तो भ्रम में पड़े या अंततः उसे त्याग ही दे। और जो कम हिन्दू हैं, उन्हें आर्य-अनार्य या आर्य-द्रविड़ जैसी कोई dichotomy के द्वारा काल्पनिक ब्राह्मणवाद और जनजातीय संघर्ष की एक चटपटी कहानी और मिल जाये जिसे वे पके-पकाये निष्कर्षों के रूप में प्रयोग कर सकें।
ऐसा भ्रम फैलाना और पीछे से प्रमाणों के नाम पर कुछ भी लिख देना वामपंथी प्रोपेगेंडा साहित्य (Agitprop) का बाएं हाथ का खेल है जिसमें बड़े ही एकेडमिक तरीके से पिछले साठ वर्षों में ये लोग सिद्धहस्त हो गए हैं।
प्रथम दृष्टया देखने में सब कुछ एक सामान्य पुस्तक की एक विद्वान द्वारा लिखी गई थीसीस लगती है। लगभग हर दूसरे वाक्य के समर्थन में किसी महत्वपूर्ण पुस्तक का नाम या फिर कोई रहस्यमय संख्या। (एक सच के साथ चार झूठे प्रमाण मुफ्त) लेकिन लेखक का पूर्वद्वेष जल्द ही सतह पर आने लगता है। वह गणपति का ही अध्ययन क्यों कर रहा है? इसका उत्तर खुद लेखक के शब्दों में –
“चूँकि हमारी मूल रुचि लोकायत अर्थात साधारण जन के विश्व दृष्टिकोण की समस्या में है इसलिए हमें देवता भी ऐसा चुनना चाहिए…… वह देवता है गणपति।”
यहां तक तो सब ठीक है, लेकिन आगे वह कहता है –
“तांत्रिक साहित्य में गणपति 50 से अधिक वैकल्पिक नामों से संबोधित हुए हैं………हमारी रुचि विशेष रूप से उच्छिष्ट गणपति के अनुयायियों में है…….. उच्छिष्ट गणपति के अनुयाई और कोई नहीं केवल वामाचारी तांत्रिक थे…..।” (क्योंकि उनमें स्वच्छंद यौन संभोग क्रिया एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है)
इस तरह लेखक का मत है कि एकमात्र तांत्रिक संप्रदाय ही जनसाधारण का वास्तविक प्रतिबिंब है। लेकिन बड़ी चतुराई से वह केवल एक ही गणपति रूप को आगे के पृष्ठों पर समस्त गणपति रूपों का प्रतिनिधि बनाकर मनमानी व्याख्यायें करने लगता है। लेखक तांत्रिक संप्रदाय की गणेश संबंधी धारणाओं का इस्तेमाल गणेश संबंधी हमारी प्रचलित सोच को भ्रमित करने के लिए धड़ल्ले से करता है। जबकि यह उच्छिष्ट रूप गणपति समुदाय के 50 से अधिक रूपों में केवल एक ही रूप था। तांत्रिक समुदाय तो शिव और विष्णु को भी ऐसे ही वीभत्स रूपकों में व्यक्त करने के लिए कुख्यात था, और वे अपने गुरु को इन सबसे ऊपर स्थान दिया करते थे तो क्या उनकी व्याख्या किसी भी हिंदू देवता की सच्ची व्याख्या हो सकती है?
उदाहरण के लिए, आजकल साईं के अतिउत्साही भक्त लोग हिंदू देवी देवताओं का विरूपण अपने ढंग से कर रहे हैं, तो क्या भविष्य में हजार साल बाद कोई इसे ही लोकधर्म कह देगा?
लेखक यह सिद्ध करता है कि आरम्भ में गणपति को विघ्नहर्ता नही बल्कि विघ्नकर्ता माना जाता था। लेकिन एक विचित्र विरोधाभास प्रस्तुत करते हुए लेखक ने नेपाल की पुरानी लोककथाओं का हवाला देकर कहा है कि बागमती के तट पर एक पंडित बौद्ध धर्म की कोई सिद्धि प्राप्त कर रहा था तो गणेश ने अनेक बाधाएं खड़ी की थी।
तब उस पंडित ने बाधाओं का नाश करने वाले बौद्ध देवता विघ्नान्तक का आह्वान किया। अब ये विघ्नान्तक कौन थे, इस विषय पर लेखक की रहस्यमय चुप्पी है, क्यूंकि उसे तो गणेश को विघ्नकर्ता सिद्ध करना है। ब्राह्मण द्वारा बौद्ध देवता की सिद्धि वाली बात आजकल के नीले नवबौद्धों के गले भी शायद आसानी से न उतरे। क्योंकि यह उनकी जमी- जमाई स्मृतियों को धो डालता है।
गणपति का बौद्ध-विरोधी होना आजकल के विमर्श के अनुसार तो ठीक है मगर इससे लेखक की गणपति सम्बन्धी धारणा ही गलत सिद्ध होती है जो उन्हें जनजातीय देवता सिद्ध करना चाहता है। इस विरोधाभास को खुद लेखक यह कहकर स्वीकार करता है कि अभिजात्य वर्ग गणपति को पसंद नही करता था। कितनी आसानी से अभिजात्य कहकर हिन्दू और बौद्ध दोनों को एक कर दिया! है न मज़ेदार विरोधाभास!!
लेखक बौद्ध देवता मंजूश्री द्वारा गणपति को पददलित करने वाली मूर्तियों का हवाला भी देता है। महाकाल नामक महायानी बौद्ध देवता की गणपति से शत्रुता भी बताता है। लेकिन इससे तो सारा विमर्श ही बदल जाता है। इसलिए तुरंत ही वह याज्ञवल्क्य और मनु का उद्धरण देकर गणपति को शूद्रों का देवता भी घोषित कर देता है।
(नोट – कई नवबौद्धों को ये मंजुश्री और महाकाल जैसे बौद्ध देवता समझ नही आ रहे होंगे क्योंकि वे रेडीमेड बौद्ध हैं, मैगी की तरह जो बस दो मिनट में ही ‘नमो बुधाय’ कह देने मात्र से बौद्ध हो जाते हैं।)
महाकाल एक बौद्ध देवता का नाम है लेकिन इसके साथ ही शिव के लिए भी यह शब्द प्रयोग किया जाता है। ऐसे ही विनायक शब्द भी है। यह बौद्ध और हिंदू दोनों परंपराओं में अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त किया गया है। लेकिन लेखक अपनी सहूलियत के हिसाब से जहां उसे कुछ सिद्ध करना हो तो वह विनायक को ही गणपति कह देता है।
इन परस्पर विरोधी तर्कों में जो उदाहरण दिए हैं वह इतने अस्पष्ट हैं कि मनुस्मृति के श्लोकों के उदाहरण की जगह जो “वी0क्यू0-1931- 2- 475” जैसा कुछ लिखा है उसका स्पष्टीकरण पुस्तक में कहीं भी नही। बहुत ढूंढने पर भी मैं इस संदर्भ को खोज नही पाया। ऐसे ही कई और उद्धरण हैं जिनपर स्पष्टोक्तियों की दरकार थी, पर वे सिरे से गायब हैं। लेकिन उस जगह पर वक्तव्य की प्रामाणिकता के पक्ष में दीवार की तरह खड़े हैं। लेकिन हममें से अधिकतर लोग इन तथाकथितों के संदर्भों को टटोलते ही नही हैं और पढ़कर आगे बढ़ जाते हैं। जिन्हें आपसे घृणा है वे आपसे ज्यादा आपके ग्रन्थों को पढ़ते हैं, (जैसे अंग्रेज, मार्क्सवादी और जाकिर नायक जैसे फ्रॉड बुद्धिजीवी) ताकि आलोचना को अधिक धारदार बनाया जा सके।
मेरा दावा है कि यदि ऐसे ही सभी संदर्भ टटोले जाएं तो इनके शोध का स्तर ताश के महल की तरह एक ही झटके में बिखर जाए। हिंदुओं के प्रति अपने दुराग्रह के चलते उनके पके-पकाए निष्कर्ष इतने हल्के हैं कि कई बार हंसी आती है। उदाहरण के लिए गणेश और परशुराम के परस्पर युद्ध का निष्कर्ष लेखक के शब्दों में इस तरह से है-
“सभी जानते हैं परशुराम ब्राह्मण वर्ग की सर्वोच्च स्थिति का घोर समर्थक थे, अतः कहा जा सकता है कि गणपति का प्रमुख शत्रु पुरोहित वर्ग था।”
अभी जो गणपति बौद्ध धर्म का शत्रु दीख रहा था अचानक से वर्गशत्रु हो गया। कमाल है!!
जबकि प्रचलित शिव कथा मैं तो शिव का भी गणेश से युद्ध होता है तो शिव किस वर्ग के देवता हुए? और यदि इसी तरह मैं यह कहूं कि गणेश की उत्पत्ति तारकासुर के नाश के लिए हुई थी जो बौद्ध देवी तारा से संबंधित कोई बौद्ध देवता था तो मंजुश्री देवता के पैरों तले गणपति मूर्ति की कहानी अपने आप ही कुछ कहानी कहने लगती है। इस आधार पर निष्कर्ष तो यह भी निकाला जा सकता है कि गणेश का विरोध बौद्धों से था ना कि ब्राह्मणों से तो फिर वे शूद्र वर्ग के देवता कैसे हुए? या फिर यह माना जाय कि शुद्र वर्गों में बौद्धों के प्रति ऐतिहासिक शत्रुता थी?
चट्टोपाध्याय की पुस्तक लोकायत में गणपति की कहानी के बहाने जिस तरह लोक प्रचलित हिंदू धर्म के अभ्युदय को नकारा है वह कुंठाजन्य प्रमाद ही अधिक है। लेकिन वह बहुत ही घातक विमर्श है। यह भले सिद्ध कुछ न कर पाए लेकिन भारतीय धर्मों और वर्गों के भीतर अंतर्कलह का बीज बोकर इस ऐतिहासिक समुदाय को और भी अधिक विखंडित अवश्य करता है, जिसका लाभ ‘अधजल गगरी छलकत जाय’ वाले कुछ छद्मबौद्ध उठा ही रहे हैं।
भले सिद्ध कुछ न हो पर बार बार एक ही धारा पर रटे रटाए तर्क गढ़ने से साठ सालों में एक बड़े वर्ग को अपनी ही संस्कृति और इतिहास के प्रति वितृष्णा से तो आपने भर ही दिया है।
ऐसी पुस्तकों को सजगता के साथ पढ़कर आप सतह के नीचे मौजूद संस्थानिक विकृतिकरण का खेल खुद देख सकते हैं। लेकिन इतिहास बोध से शून्य इस देश मे इतिहास के प्रति समझ का सारा ठेका वामियों ने ही तो उठा रखा है। आमजन इनके षड्यंत्रों के प्रति वैसे ही तटस्थ है जैसे मध्यकाल में अपने देश की जनता विधर्मी आक्रमणकारियों के प्रति “कोउ हो नृप हमें का हानी” कहकर हो जाया करती थी। साठ सालों में विद्वानों के विमर्श के नाम पर सुनियोजित ढंग से Agitprop प्रोपेगेंडा चलाया जा रहा है। इसकी जड़े बौद्धिक संस्थानों में बहुत गहरी धंस गई है। उसी से आज की पढ़ी-लिखी विकृतियां जन्म लेती है।
मिहिर
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नीचे चित्र अबतक प्राप्त सबसे प्राचीन गणेश मुद्रा का है। 2.89 ग्राम वजनी यह मुद्रा पद्मभूषण प्राप्त मुंबई के डॉ0 कोठारी को चोर-बाजार में वृषभ चिन्ह वाली किसीे दूसरी मुद्रा को ढूंढते हुए प्राप्त हुई है जो इसके पिछली तरफ अंकित है। लेकिन दो हाथ वाली गणेश आकृति की ओर ना तो डॉ0 कोठारी और ना ही उस विक्रेता ने उस समय ध्यान दिया था। मुद्रा पर अंकित ब्राह्मी लिपि के आधार पर अलग-अलग विद्वानों ने इसकी अलग-अलग तिथियों अनुमानित की है। इन अनुमानों के आधार पर यह मुद्रा पहली से 5 वीं सदी के बीच की हो सकती है। यदि ऐसा है तो यह भारत में अब तक प्राप्त सबसे प्राचीन गणेश मुद्रा है।