नैरेटिव के युद्ध में भारत का पीछे जाना कुछ वैसा ही है जैसे कभी तलवार-तीरों के युग में तोपों के आने से हुआ था। भारतीय लोगों ने आपने हाथियार उतनी तीव्र गति से नहीं बदले। हाथियों का सामना जब तोपों से होने लगा तो तोपें बेहतर होने के कारण, आक्रमणकारियों को विजय दिलाती रहीं। भारत में सिर्फ मौजूदा कनून ही नहीं, आंम आदमी जो इस नैरेटिव की लड़ाई, इस कथानक के प्रहार को झेलता है, वो नए किस्म के युद्ध के नए हथियार को अपनाने के लिए तैयार नहीं है। “हम तो प्रचार से दूर रहते हैं जी” जैसे जुमलों के पीछे छुपकर वो खुद को नैतिक और शत्रु से महान बताने पर तुला है। वो ये भूल जाता है कि इतिहास विजेता लिखते हैं और अगर वो हारा तो उसे इतिहास में खलनायक ही बताया जाएगा। बल्कि इतिहास तक भी प्रतीक्षा क्यों करनी है? उसे तो Narrative (कथानक) में अभी ही सांप्रदायिक (Communal), अल्पसंख्यकों का दमन करने वाला, स्त्री विरोधी, पुरातनपंथी इत्यादि बताया जाता है। इतिहास से सीखकर या तो नैरेटिव (कथानक) की लड़ाई लड़ना सीखना होगा, या जैसा कभी तोपों से हुआ था, वैसे ही मोर्चा दर मोर्चा हारें मिलती रहेंगी। क्या चुनना है, वो विकल्प तो हमेशा अपने हाथ ही होता है!
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राक्षस
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