घटना कोई भी हो, टीका-टिप्पणी तो जरूरी है न? भारत में ही नहीं, विश्व भर में ये परंपरा ही है कि मुद्दे पर कोई जानकारी न भी हो, तो भी लोग सलाह देने आएंगे ही। घोड़ा लेकर जा रहे एक पति-पत्नी के साथ भी ऐसा ही हुआ। दो लोग थे और घोड़ा एक ही था तो दोनों बातें करते हुए घोड़े के साथ-साथ पैदल ही चले आ रहे थे। एक गाँव से जब वो गुजरे तो देखने वाले कुछ लोगों ने कहा, कैसे मूर्ख दम्पति हैं! घोड़ा है, फिर भी पैदल चले जा रहे हैं। उनकी बातें सुनकर पति घोड़े पर जा बैठा।
अगले गाँव में लोग नालीवादी, क्षमा कीजियेगा, नारीवादी थे। उन्होंने जब पुरुष को घोड़े पर सवार और स्त्री को पैदल चलते देखा, तो बोल पड़े, बड़ा असभ्य पुरुष है! पत्नी को पैदल चलने के लिए छोड़कर खुद ठाठ से घोड़े पर बैठा है! उनकी बात सुनकर पुरुष ने स्त्री को भी घोड़े पर बिठा लिया। अगले गाँव में वो जहाँ पहुंचे वहाँ पेटा समर्थक किस्म के लोग थे। बकरीद बीत चुकी थी और दीपावली आने वाली थी, इसलिए चुप रहने के बदले उन्हें पशुओं के शोषण पर बात करके वर्च्यु सिग्नलिंग करनी थी। इस गाँव में लोगों ने बेचारे घोड़े की दुर्दशा का रोना रोया। कुछ ने तो दो लोगों का बोझ उठाते घोड़े पर कविता तक लिख डाली।
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खीजकर अब पुरुष घोड़े से उतर गया, स्त्री सवार रही और वो लोग अगले गाँव में पहुंचे। यहाँ एक समुदाय विशेष के लोग थे और जब उन्होंने देखा की स्त्री घोड़े पर और पुरुष पैदल है तो वो बोले क्या जमाना आ गया है। बदतमीज औरत सीधा दोजख जाएगी जो मर्द की सेवा करने के बदले खुद मेवा खा रही है! अब स्त्री भी घोड़े से उतर गयी और फिर से पहले वाली स्थिति ही हो गयी!
कहानी के अंत में वो अपने घर पहुँच गए थे या नहीं ये तो पता नहीं, मगर इस कहानी से शिक्षा ये दी जाती है कि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। गाने का जो “छोड़ो बेकार की बातों में, कहीं बीत न जाए रैना” वाला हिस्सा है, वो आपको याद रखना है। भगवान की दया से आपके पास दो कान इसी लिए हैं, ताकि बेकार की बातों को आप एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल सकें। ये कितना जल्दी आप सीख लेते हैं, ये तो पूरी तरह आपपर निर्भर है!