सबसे लम्बे ब्लॉग पोस्ट में जानिए कांग्रेस और प्रशांत किशोर में आखिर क्या बातचीत हुई होगी
पिछले कुछ दिनों में चर्चा गर्म रही कि प्रशांत किशोर कांग्रेस में शामिल होने जा रहे हैं। अगर ट्रैक रिकॉर्ड के हिसाब से देखें तो हाल के कुछ वर्षों में चुनाव जीतने वाले दलों से प्रशांत किशोर का जुड़ाव रहा है। इसकी वजह से कांग्रेस से उनकी क्या बातचीत हुई होगी, ये राजनैतिक ख़बरों में रूचि रखने वालों के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। चुनावों के विश्लेषण को एक विषय की तरह पढ़ा-सीखा भी जाता है, जिसे सैफोलोजी कहते हैं। ऐसे विश्लेषक जो कई टीवी चैनलों पर चुनावी दौर में दिखते हैं, उनकी तुलना में भी प्रशांत किशोर की भविष्यवाणियां कहीं अधिक सटीक रही हैं। जब इन सबको मिलाकर देखा जाए, तो ये जानना रोचक हो जाता है कि आखिर प्रशांत किशोर ने कांग्रेस को क्या सलाह दी होगी !
आज के ब्लॉग में हम ऐसे ही अंदाजे लगाने जा रहे हैं। ये ब्लॉग लम्बा है, चुनावों और राजनैतिक खबरों में रूचि रखने वालों के लिए ये काम का हो सकता है। आंकड़ों और सर्वेक्षणों के बारे आपको अच्छी तरह पता चल जायेगा। अगर आपकी सैफोलोजी यानि चुनावी अनुमान लगाने के विषय में रूचि हो तो आप ये पूरा पोस्ट जरूर पढ़े ।
भारत की आबादी करीब 143 करोड़ की है जिसमें से 104 करोड़ लोग ऐसे हैं जो मतदान कर सकते हैं। इसका मतलब होता है कि 32.5 करोड़ परिवार हैं, और प्रति परिवार 3.2 वोट हैं। भारत मे कुल 728 जिलों, 7083 ब्लॉक और 6.6 लाख गाँव में इस गिनती को बांटें तो इस कई अलग अलग तरीके से देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर हम ये देख सकते हैं कि इस कुल 104 करोड़ में से 68 करोड़ स्त्रियाँ हैं, 50 करोड़ युवा हैं, 48 करोड़ किसान हैं या 5 करोड़ छोटे व्यापारी हैं। या फिर इसी में ये देखा जा सकता है कि 21 करोड़ समुदाय विशेष के हैं, 23 करोड़ अनुसूचित जातियों से और 12 करोड़ अनुसूचित जनजातियों से हैं। करीब ढाई लाख पंचायतों और बेरासी हजार दो सौ इक्यावन वार्ड में इसे आप ऐसे भी बाँट सकते हैं कि यहाँ 130 करोड़ मोबाइल इस्तेमाल करने वाले हैं, 93 करोड़ इन्टरनेट इस्तेमाल करने वाले और 43 करोड़ फेसबुक इस्तेमाल करने वाल लोग हैं। भारत में करीब तेरह करोड़ लोग ऐसे होंगे जो पहली बार मतदान कर रहे होंगे।
इन आंकड़ों से जब आप अंदाजा लगा चुके हैं कि संभावनाएं कितनी हैं, तो आइये देखें कि कांग्रेस की स्थिति कैसी रही है। फ़िलहाल भारत में तीन राज्य ऐसे हैं जो सीधे कांग्रेस के शासन में हैं, 3 में वो सरकार की सहयोगी है, 13 राज्यों में कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल है और तीन राज्यों में वो विपक्ष का मुख्य घटक है। मतों की गिनती के हिसाब से कांग्रेस को 11.9 करोड़ मत मिले थी, आज उसके कुल 90 यानि लोकसभा में 52 और राज्यसभा में 38 सांसद हैं। पिछले 2019 के चुनावों में 209 सीटें ऐसी थीं जहाँ कांग्रेस दूसरे स्थान पर आई थी। राज्य की विधानसभाओं में कांग्रेस के करीब 800 एमएलए हैं और 1072 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जिनपर 2016 से 2021 के बीच हुए चुनावों में कांग्रेस दूसरे स्थान पर आई है।
इसे जानने के बाद अब लगता है कि “कांग्रेस मुक्त भारत” के जो दावे किये जाते हैं, वो सुनने में भले ही कुछ लोगों को अच्छे लगते हों, सच्चाई से वो अभी भी कोसों दूर की बात है!
पिछले पचास वर्षों में, यानि 1971 से लेकर अबतक के चुनावों में अगर हम कांग्रेस के मतों का प्रतिशत देखें तो ये स्थति थोड़ी स्पष्ट होती है। हमें पता चलता है कि शुरुआत में स्थिति जितनी भयावह लग रही थी, असल में उतनी भयावह नहीं है। कांग्रेस के मतों का प्रतिशत थोड़ा थोडा करके नीचे आता रहा है। अगर 2004 और 2009 के चुनावों में थोड़ा सा बढ़ना न देखा जाये तो ये लगातार घटता ही रहा है।
जाहिर है कि चुनावों का प्रबंधन करने वाले प्रशांत किशोर जैसी लोग उन्हीं सीटों पर ध्यान देंगे जहाँ पहले ही कांग्रेस ने पहला या दूसरा स्थान प्राप्त किया था। इनकी गिनती जोड़ी जाए तो कांग्रेस की आगे की राह उतनी कठिन नहीं दिखती। ये जरूर कहा जा सकता है कि 1971 सी करीब 1991 तक के बीस वर्षों में कांग्रेस जहाँ 400 से 500 सीटों पर पहले या दूसरे स्थान पर रही वहीँ ये गिनती 1998 से 2009 के दौर में घटकर 300-350 पर थी और 2014 के बाद से तो घटकर 250-270 के बीच है। ध्यान रहे कि ये गिनती सिर्फ जीती हुई सीटों की नहीं है। ये गिनती उन सभी सीटों की है जिनपर कांग्रेस पहले या दूसरे स्थान पर थी।
राज्यों की चुनावों को जोड़कर देखें तो विधानसभा परिणामों में कांग्रेस की हालत काफी बिगड़ी है। पहले और दूसरे स्थान पर जिन विधानसभा सीटों पर कांग्रेस रही उन सभी को एक साथ जोड़ भी दें तो 1985 के लगभग 3400 की तुलना में ये लगातार घटते हुए 2021 में ये गिनती 1872 पर पहुँच चुकी है।
जहाँ तक सीधे मुकाबले का प्रश्न है, कांग्रेस-बीजेपी की जहाँ आमने सामने टक्कर थी, उन सीटों पर लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई है। जिन 373 सीटों पर कांग्रेस ने भाजपा का सामना किया, 2014 में वो उनमें से सिर्फ 37 सीटों पर जीत पाई। 2019 में हालात थोड़े और बिगड़ गए, 374 सीटों पर आमना-सामना हुआ और कांग्रेस सिर्फ 31 पर जीती। कांग्रेस 2014 में सीधे मुकाबले वाली 90 फीसदी सीटें हारी थी और 2019 में वो सीधे मुकाबले वाली 92 प्रतिशत सीटें हारी।
अब सवाल ये उठता है कि कांग्रेस का इतना बुरा प्रदर्शन क्यों है? आखिर क्या वजहें रही कि चुनावों में उसे ऐसी करारी हार का सामना करना पड़ रहा है? कांग्रेस के धीरे-धीरे घटते आंकड़ों को देखें तो हार के चार प्रमुख कारण समझ में आते हैं –
- पार्टी पर उसकी विरासत का बोझ बहुत ज्यादा है। नेहरु, इंदिरा, राजीव जैसे नामों को पार्टी ने इतना बड़ा बना दिया कि उनके वजन के नीचे ही ये टूटने लगी।
- पिछले कुछ दशकों में कम से कम चार बार पार्टी को अपनी नीतियों, अपने फैसलों की वजह से जनता के बड़े विरोध का सामना करना पड़ा है।
- विरासत और सफलताओं को भुनाने में कांग्रेस बुरी तरह नाकाम हुई है। कांग्रेस के लोगों को अपनी विरासत को जाना नहीं इसलिए उन्हें ये तक नहीं पता कि किन बातों का श्रेय लिया जा सकता है, और किनपर जनता समर्थन नहीं देगी।
- संस्थागत कमजोरियां जिसे आप आपसी द्वेष कह सकते हैं, और इसके अलावा आम आदमी से कट जाना भी कांग्रेस की हार की वजह रहा है।
- कांग्रेस मे राहुल गांधी के अलावा कोई चेहरा दिखाई नहीं देता , कपिल सिब्बल से लेकर पि चिंदबरम तक कहीं न कहीं जब कांग्रेस सत्ता मे होती है तभी राजनीति करते नजर आते है नहीं तो वो वकालत करते नजर आते हैं !
- राहुल गांधी जब भी सरकार बनी कोई अहम पद नहीं लिया , राहुल न तो जमीन पर दिखाई देते हैं न ही सत्ता मे फिर भी वो पार्टी का चेहरा हैं
सबसे पहले हम चलते हैं विरासत पर। विरासत के साथ दिक्कत ये है कि कुछ अच्छी चीजें विरासत में मिली तो, लेकिन बहुत सी कमियां ऐसी थी, जिन्हें सीधे सीधे पिछले सत्तर वर्षों के कांग्रेसी शासन पर थोपा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर –
- भारत में 17 लाख लोग बेघर हैं
- कम से कम 9 लाख बच्चे पांच वर्ष के होने से पहले ही प्रति वर्ष मृत्यु को प्राप्त होते हैं
- हर दिन करीब 20 करोड़ लोगों को भूखे सोना पड़ता है
- सौ रुपये प्रति दिन से कम पर गुजारा करने वाले, भारत में 55 करोड़ लोग हैं। ये भारत की करीब आधी आबादी होगी?
- भारत में 16 करोड़ लोगों को साफ़ पीने का पानी मुहैया नहीं, 24 लाख लोग प्रति वर्ष ऐसी बिमारियों से मरते हैं, जिनका इलाज संभव है और 20 करोड़ लोग कुपोषित हैं!
अंतर्राष्ट्रीय जो मानक जारी होते हैं उनपर भी भारत की स्थिति बुरी रही है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर भारत का स्थान 102 था। पोवर्टी यानि गरीबी के मामले में चीन की तुलना में भारत काफी पीछे है। सबके लिए शिक्षा के मानकों पर भारत पिछड़ा हुआ है।
भ्रष्टाचार के मानकों पर भारत सबसे भ्रष्ट देशों की तुलना में आने लायक है और व्यापार शुरू करना भी यहाँ काफी मुश्किल काम है।
जो चार प्रमुख जनता के विरोध कांग्रेस ने झेले हैं, उनका मोटे तौर पर सबको पता है। पहला 70 के दौर का जेपी आन्दोलन था जिसे इंदिरा गाँधी ने झेला। उसके कुछ ही समय बाद राजीव गाँधी को बोफोर्स घोटाले के मामले में, फिर मंडल कमीशन का विरोध और राम मंदिर आन्दोलन का सामना करना पड़ा। उसके बाद जब मोदी का उदय हो रहा था, तभी अन्ना हजारे का आन्दोलन, निर्भया कांड जैसे मामलों में भी कांग्रेस को भारी विरोध झेलना पड़ा था।
जो कामयाबियां थीं, उन्हें भुनाने में भी कांग्रेस नाकाम रही है। इसकी एक वजह ये हो सकती है कि नेहरु को आधुनिक भारत के निर्माता की तरह पेश किये जाने पर ये भी बताया जा सकता है कि उनके आने से पहले ही काफी कुछ हो चुका था। जिसका श्रेय कांग्रेस नेहरु को देने की कोशिश करती है, उसमें से कुछ भी नेहरु का था ही नहीं। ऐसा ही इंदिरा गाँधी को बांग्लादेश का श्रेय देने पर होता है। अगर उसका श्रेय सेना के बदले इंदिरा को दें, तो सर्जिकल स्ट्राइक का क्रेडिट मोदी को चला जाता है। गरीबी हटाओ के जो नारे उन्होने दिए थे, वो कितने खोखले थे, ये भी पता चलता ही है। राजीव गाँधी को टेलिकॉम-आईटी का श्रेय दिए जाने का भी मजाक उड़ाया जाता है। पंचायती राज लागू करने और मतदान की उम्र कम करने को चुनावी क्रांति बताकर उसका यश लेने में भी कांग्रेसी नाकाम रहे हैं। नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह जैसे जो प्रधानमंत्री गाँधी-नेहरु परिवार का हिस्सा नहीं थे, उनसे कांग्रेसी कन्नी काटते रहे हैं, इसलिए मिड डे मील या फिर मनरेगा जैसी योजनाओं का भी कांग्रेसी लाभ नहीं ले पाए।
आंकड़ों के आधार पर देखेंगे तो ये साफ़ साफ़ पता चलता है कि पिछले पचास या सत्तर वर्षों में भारत की कई ऐसी उपलब्धियां रही हैं, जिनका श्रेय कांग्रेस ले सकती थी। स्वाथ्य, शिक्षा, रोजगार जैस मामलों से आम आदमी कटा रहे, उसकी जागरूकता कम हो इन मुद्दों पर, ऐसा प्रयास कांग्रेस ने खुद ही कई वर्षों में किया। अब चूँकि जागरूकता शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत संरचनाओं के बारे में कम थीं, तो इन्हें चुनावी मुद्दा बनाना, आम लोगों के बीच इनकी बात शुरू करना भी उतना आसान नहीं रह गया। इसका सीधे तौर पर नुकसान भी कांग्रेस को ही हुआ है।
पढ़ते पढ़ते अगर थक गए हो ये विडियो आपके लिए
जनता से कट जाने की कांग्रेस के पास दूसरी वजहें भी रही हैं। ऐसा एक बड़ा मुद्दा तो था बूढ़ा हो चला नेतृत्व। पुराने कांग्रेसियों ने युवाओं को कभी जगह दी ही नहीं। इसकी वजह से आज के युवा भारत की तुलना में कांग्रेसी नेतृत्व कम से कम दो पीढ़ी पुराना है। जिस मतदाता से वो बात करने पहुँचते हैं, उसे कांग्रेसी नेताजी में अपने पिताजी की भी नहीं, अपने दादाजी की पीढ़ी का आदमी दिखता है। उसकी महत्वाकांक्षाएं अलग है, नैतिकता के उसके मापदंड अलग है, अपेक्षाओं और सामाजिक व्यवस्था से लेकर बोलने का कपड़े पहनने का ढंग तक अलग है। कांग्रेसी नेता आम आदमी जैसा लगता ही नहीं! इसके अलावा राजीव गाँधी की 1990 की “भारत यात्रा” के बाद से कांग्रेसियों ने आम आदमी से जुड़ने के लिए कोई यात्रा-अभियान चलाया ही नहीं। रथ यात्रा, राम मंदिर आन्दोलन, भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन जैसे किसी अभियान के माध्यम से वो जनता से नहीं जुडी। चौबीस घंटे से ऊपर चलने वाले किसी विरोध में वो भाजपा के खिलाफ नहीं उतरी। ये तब है जब कम से कम तीन – सीएए-एनआरसी, दलितों के आरक्षण वाले आन्दोलन, किसान आन्दोलन, किसी में भी उसकी भागीदारी हो सकती थी।
लोकतान्त्रिक ढांचा कांग्रेस से गायब हो चुका है। 1885 से 1998 तक में कांग्रेस के 61 पार्टी प्रेसिडेंट रहे यानि औसत 2 वर्षों में ही प्रमुख बदले लकिन 1998 से अबतक के 23 वर्षों में केवल दो, उसमें भी सोनिया 21 वर्षों तक पार्टी प्रेसिडेंट रही हैं और राहुल गाँधी दो वर्ष! जिला और ब्लॉक स्तर पर जो पार्टी के नेता है, उनमें से 65 प्रतिशत ऐसे हैं, जो कभी पार्टी के बड़े नेताओं से मिले ही नहीं! ऐसे में जनता की बात पार्टी के आलाकमान तक कितनी पहुँचती होगी, और आलाकमान की बात से जमीनी नेता कितने जुड़े होंगे, ये अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। असम और मणिपुर जैसे राज्यों में कांग्रेस से असंतुष्ट होकर जो निकले, वही अब भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री हैं।
कांग्रेस का पिछले कुछ चुनावों में प्रदर्शन देखा जाये, तो ये प्रदर्शन कुछ ख़ास अच्छा तो नहीं ही दिखता है। ये जरूर है कि अगर शीर्ष नेतृत्व में बदलाव की बात किसी ने सोची भी, तो उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। आम जनमानस के मन में कांग्रेस की जैसी छवि फ़िलहाल है, उसके हिसाब से देखें तो शीर्ष नेतृत्व के न बदलने और कांग्रेस के पतन को देखकर आम आदमी खुश ही होगा।1998 से लेकर अबतक जो चुनाव हुए हैं, उसमें कांग्रेस लगातार ही पिछड़ती हुई साफ़-साफ़ देखी जा सकती है।
अब चलते हैं उन बातों पर जिन्हें संभवतः प्रशांत किशोर ने बदलने की सलाह दी होगी। असम और मणिपुर के जो मुख्यमंत्री हैं, उनका भाजपा में होना ही इस बात को स्पष्ट कर देता है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अपने सफल संगठनकर्ताओं से कितना कटा हुआ, कितना अलग थलग है। जो सलाह नहीं मानी जाएगी वो संभवतः प्रशांत किशोर ने ये दी होगी कि अहंकार थोड़ा कम करके पार्टी आलाकमान को जमीनी कार्यकर्ताओं से जुड़ना चाहिए। एक विकल्प ये भी हो सकता है कि कोई कार्यकारी प्रमुख हो जो नेहरू-गाँधी परिवार का न हो और पार्टी की ओर से संगठन का काम करे। कांग्रेस के संसदीय दल का प्रमुख संसद के बाहर-भीतर पार्टी की बात को आम आदमी की भाषा में अच्छे तरीके से प्रस्तुत कर पाए इसकी अनुशंसा भी हुई होगी। ऐसी कोई संभावना नहीं लगती कि इन बातों को माना जायेगा और कोई जनरल सेक्रेट्री वगैरह ऐसे बनेंगे जो समायोजन का काम देखें।
प्रशांत किशोर की योजना, कांग्रेस संसदीय दल के प्रमुख को भाजपा के मोदी की तुलना में खड़ा करने की थी। भाषण देने और अपनी बात समझ में आने लायक भाषा में लोगों के सामने रखने का मुद्दा हो, प्रशासन को सफलतापूर्वक एक राज्य के मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के रूप में चलाने के अनुभव की बात हो, जनता के बीच छवि हो, जमीनी काम का अनुभव हो, किसी भी मामले में राहुल गाँधी तो प्रधानमंत्री मोदी की तुलना में कहीं नहीं ठहरते। कांग्रेस किसी और विकल्प पर विचार भी करे ऐसी कोई संभावना नहीं लगती, इसलिए राहुल गाँधी ही मुकाबले में होंगे। जाहिर है, ये भाजपा को जीतने की खुली छूट देने जैसा ही है।
इसे आगे बढ़ाकर देखीं तो संसद में 2015 से एनडीए के मुकाबले में यूपीए (यानि कांग्रेस) की क्या स्थिति रही है, उसके ग्राफ में ये भी दिख जायेगा। एनडीए और भाजपा जहाँ लगातार तीन सौ से कुछ कम से तीन सौ से ऊपर की तरफ बढ़ती हुई दिखती है, वहीँ कांग्रेस सौ-डेढ़ सौ के आस पास सिकुड़ी-सिमटी सी नजर आती है। इतने दशकों के शासन में जो सिस्टम में कांग्रेस ने अपनी पैठ बनाई है, उसकी वजह से शोर भले ही कांग्रेस का सुनाई दे लेकिन कानून बनाने, नीतियों को बदलने के लिए जो गिनती चाहिए, वो आराम से भाजपा के पास है और भाजपा लगातार इस संख्या बल का प्रयोग करती हुई भी दिखती है।
चुनावी संभावनाओं की बात करें तो अब कांग्रेस के पास तीन विकल्प होते हैं। पहला विकल्प तो ये है कि कांग्रेस अकेले ही चुनावी मैदान में उतरे। कुल 52 जिनपर पिछले 2019 के चुनावों में कांग्रेस पहले स्थान पर थी और 209 सीटें जहाँ कांग्रेस दूसरे स्थान पर आई थी, वहाँ संभावनाएं तलाशी जा सकती हैं। इसमें जीत होने पर भी कांग्रेस जादुई आंकड़ा तो नहीं छूती लेकिन एक राष्ट्रिय पार्टी की तरह भाजपा के मुकाबले अकेले उतरने से उसकी छवि को फिर से बल मिलेगा। वो एक राष्ट्रिय पार्टी की तरह जिन्दा तो जरूर हो जाएगी। दूसरी संभावना है सभी दलों को साथ लेकर एक साझा विपक्ष बनाना और एक मजबूत विपक्ष की तरह, एक साथ मिलकर भाजपा का मुकाबला करना। इसकी कोशिशें कई वर्षों से चल रही है, इससे यथास्थिति बदलती नहीं। कहा जा सकता है कि इससे कांग्रेस को कोई ख़ास फायदा नहीं होने वाला। तीसरी संभावना जो सबसे फायदेमंद लग रही है वो है कुछ राज्यों में अकेले और कहीं-कहीं राज्य स्तर की पार्टियों से गठबंधन करना। फ़िलहाल यही सबसे लाभदायक विकल्प नजर आता है।
अगर इस तीसरे विकल्प को थोड़ा विस्तार देकर देखें तो हमें प्रशांत किशोर कई संभावनाएं दिखा देते हैं। सबसे पहले तो कांग्रेस इस तरीके से राष्ट्रिय स्तर पर एक भाजपा से टक्कर लेने लायक पार्टी की तरह नजर आती है। इसके लिए कांग्रेस को करीब 70 से 75 प्रतिशत लोक सभा सीटों पर अकेले चुनाव लड़ना होगा। विचारधारा के स्तर पर पार्टी को ऐसी किसी भी पार्टी से समझौता नहीं करना होगा जो उससे अलग दिखती हो। जैसा कि शिवसेना से समझौता करने के मामले में उसकी “सेक्युलर” छवि बिगड़ती है। किनका साथ चल सकता है, ये भी स्पष्ट होगा। उदाहरण के तौर पर कांग्रेस को नीचा दिखाने पर तुली समाजवादी पार्टी से यूपी में समझौता करना कोई समझदारी नहीं लगती। ऐसे ही जो कम्युनिस्ट हमेशा कांग्रेस के नेताओं और गाँधी की विचारधारा के खिलाफ रहे, उनसे समझौते भी टिकाऊ नहीं होते। राज्य स्तर पर चुनावी गठबन्धनो से इसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जहाँ पिछले बीस वर्षों में कभी न तो कांग्रेस ने सरकार बनाई हो, न ही वो प्रमुख विपक्षी दल हो, उन राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए गठबंधन किये जा सकते हैं।
अगर नक्शे पर देखा जाये तो इस तीसरी योजना में कांग्रेस को कुछ इस तरीके से चुनावों में उतरना होगा –
- सत्रह राज्यों की 358 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ेगी।
- पांच राज्यों में 168 सीटों पर पार्टी अपने किसी राज्य स्तरीय सहयोगी के साथ मिलकर लड़ेगी। महाराष्ट्र में एनसीपी, आंध्रप्रदेश में वायएसआरसीपी, झारखण्ड में डीएमके, और बंगाल में टीएमसी को साथ लेकर चुनाव लड़ने पर विचार किया जा सकता है।
- जम्मू-कश्मीर, लेह-लद्दाख और उत्तर पूर्वी भारत के राज्यों में सत्रह सीटों पर समझौते करने होंगे।
इस तरीके से कुल कितनी सीटों पर कांग्रेस अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर मजबूत स्थिति में आ जाएगी उसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। इस गठबंधन से अभी 128 सीटों पर कांग्रेस और उसके साथ आ सकने वाली पार्टियाँ जीत की स्थिति में हैं। कुल 249 सीटें ऐसी हैं, जिनमें से 209 पर कांग्रेस दूसरे स्थान पर थी और बाकी पर उसके सहयोगी दूसरे नंबर पर रहे हैं। अगर सिर्फ 2019 के इन चुनावी आंकड़ों को देख लिया जाये, तो कांग्रेस उतनी भी कमजोर नहीं लगती!
अब सवाल उठता है कि ऐसे बदलावों के साथ अगर चुनाव जीतने हों, तो पार्टी के संगठन में क्या बदलाव करने होंगे? यही सबसे मुश्किल हिस्सा है। कांग्रेस जैसा बड़ा संगठन, प्रशांत किशोर की सलाह मानकर, इतने बदलाव कर डाले, ये किसी भी तरह मुमकिन नहीं लगता। कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सभी सदस्यों-पदों का समय निश्चित हो, वो समय समय पर बदलने चाहिए। आन्तरिक रूप से मनोनीत पदों पर बिठाये गए लोगों की गिनती घटाकर संवैधानिक तरीके से चुने गए लोगों के बराबर करना भी मुमकिन नहीं लगता। सत्ता की मलाई खाकर मोटे हो चुके लोग तकनीक सीखेंगे, नए दौर में बदलते संवाद के तरीकों का प्रयोग करने लायक होंगे, ये भी मुश्किल है। इसके अलावा परिवारवाद-वंशवाद का जो आरोप कांग्रेस पर लगता रहा है, उससे निपटने के लिए “एक परिवार, एक टिकट” की नीति को सख्ती से लागू करना होगा। ये भी ऐसी बात है, जो कांग्रेस में लागू होगी, ये संभव नहीं लगता।
प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर भी प्रशांत किशोर जैसे लोग काफी कुछ बता सकते हैं। गौर कीजिये की कैसे करीब 20% कांग्रेसी नेता अधेड़ से बुजुर्ग की श्रेणी के हैं। प्रशांत किशोर संभवतः चाहते होंगे कि 35 से 45 आयुवर्ग के नेताओं की गिनती बढ़े। अफ़सोस इस उम्र के ज्यादा लोग शायद कांग्रेस की डूबती नैया में सवार नहीं होना चाहेंगे। जातीय समीकरणों का हाल भी कुछ ख़ास अच्छा नहीं है। करीब 25% एससीएसटी की तुलना में ओबीसी वर्ग के 41% नेता हैं। इसे भी बदलने की जरुरत है। यही हाल महिलाओं और पुरुषों के समीकरण का है। केवल ग्यारह प्रतिशत महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने से कांग्रेस मर्दवादी भी लगती है। करोड़पतियों की गिनती भी कांग्रेस में काफी ज्यादा है। जाहिर है जमीन से जुड़े, आम आदमी के मुद्दे, या सड़क पर उतरकर आन्दोलन करने वाले लोग कांग्रेस के पास नहीं बचे।
इसके बाद प्रश्न उठता है अपराधों और भ्रष्टाचार का। संभवतः प्रशांत किशोर ने इस बात पर भी ध्यान दिलाया होगा कि 2014 के आम चुनावों में सभी पार्टियों के जो उम्मीदवार थे, उनमें सी करीब 17% पर अपराधिक मामले थे। 8205 उम्मीदवारों में से 908 यानि 11 प्रतिशत ऐसे थे जिनपर गंभीर अपराधिक मुक़दमे थे। इसकी तुलना में 28 प्रतिशत कांग्रेसी अपराधिक मामलों में मुक़दमे झेल रहे थे और 13 प्रतिशत कांग्रेसी उम्मीदवारों पर गंभीर मामले थे। अगले 2019 के चुनावों में ये गिनती और बढ़ गयी। इस बार 39 प्रतिशत पर अपराधिक मामले थे और 26 प्रतिशत कांग्रेसी ऐसे थे जिनपर गंभीर अपराधिक मामले हों।
अज्ञात स्रोतों से आय वालों की लिस्ट भी देखें तो कम्युनिस्ट पार्टियों जैसे सीपीआई और सीपीएम की करीब 36-37 प्रतिशत आय अज्ञात स्रोतों से होती है, मगर कांग्रेस की 79.40% आय का स्रोत अज्ञात है। भ्रष्टाचार के मामले में ऐसे में कांग्रेस पर सवाल उठाना आसान हो जाता है।
पुराने ढांचे को पूरी तरह ध्वस्त करके एक नया आधारभूत ढांचा बनाना काफी समय लेने वाला काम होगा। इसके अलावा पार्टी की आन्तरिक राजनीति, जिसके जरिये लोगों को पद मिले थे, उनपर भी ऐसे बड़े बदलावों से असर होता। इससे बचने के लिए संभवतः प्रशांत किशोर ने पार्टी के अन्दर ही और व्यवस्थाओं को देखने के लिए एक समानांतर प्रबंधन की बात की होगी।
लोक-सभा और विधानसभा के लिए कुछ को-ऑर्डिनेटर हों, बूथ के स्तर पर काम करने वालों को पहचान दी जाये, कोई केन्द्रीय इकाई इनका काम भी देखती हो, तो ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है।
जमीनी स्तर पर काम करने वाले जानते हैं कि भाजपा के पास आज कार्यकर्ताओं का बहुत बड़ा समूह है। इनमें से अधिकांश सोशल मीडिया और कई बार प्रत्यक्ष माध्यमों से स्थानीय नेतृत्व से जुड़े होते हैं। इसका नतीजा ये होता है कि सोशल मीडिया सहित, जमीनी स्तर और परंपरागत मीडिया में चुनावों के दौर में भाजपा जैसी पार्टी की बात इतनी तेजी से फैलती है, जिसका मुकाबला कर पाना कांग्रेस के लिए संभव नहीं हो पा रहा।
इससे निपटने के लिए कांग्रेस को में देश भर में करीब 50 लाख कांग्रेस के पद-धारक और कम से कम 50 लाख कार्यकर्त्ता चाहिए। इनका काम क्या होगा, कितने क्षेत्र तक इनकी पहुँच का विस्तार होगा, वो भी तय किया जा सकता है। राष्ट्रिय स्तर पर, फिर प्रदेश कांग्रेस कमिटी में, सबसे नीचे बूथ स्तर पर भी कार्यकर्त्ता तो चाहिए ही। सिर्फ बूथ इनचार्ज की गिनती देखें तो पार्लियामेंटरी कमिटी को 30 लाख बूथ इंचार्ज चाहिए जो कांग्रेस के पास नहीं हैं। इन्हें हर चुनावों के वक्त चुना-मनोनीत किया जाता है। इसकी वजह से इलाके में हर घर तक पहुँचने के लिए संभवतः उनके पास बहुत कम समय होता होगा।
इनका नतीजा क्या होगा? ये हमें सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर ले आता है। प्रशांत किशोर संभवतः साझा प्रयासों की बात कर रहे थे। साथ मिलकर जिले से लेकर दिल्ली तक किये गए विरोध, आंदोलनों इत्यादि के जरिये वो मौजूदा सरकार के खिलाफ असंतोष को हवा देना चाहते होंगे। इसके माध्यम से नए नेताओं को पहचान मिलती है, लोगों से मिलने बात करने का मौका मिलता है, उनकी अपेक्षाएं, उनकी नाराजगी समझने का अवसर मिलता है। ये एक अच्छी तकनीक हो सकती थी।
कांग्रेस इसे क्यों नहीं मानेगी, इसे समझना बिलकुल आसान है। आजतक के किसी चुनाव में कांग्रेस इसलिए नहीं जीती, क्योंकि कांग्रेस ने कुछ किया था। कांग्रेस इसलिए जीतती है क्योंकि उसके विरोधियों ने कुछ नहीं किया। इंदिरा गाँधी आपातकाल के बाद जब हारती हैं, तो कुछ करके अगली बार जनता पार्टी से नहीं जीती। जनता पार्टी आपसी कलह से ख़त्म हो गयी, इसलिए जीती थी। ऐसे ही राजीव गाँधी कुछ करके नहीं जीते। पहली बार वो इंदिरा गाँधी की हत्या से मिले सिम्पथी वोट से जीते थे। फिर वीपी सिंह की सरकार मंडल-कमंडल की वजह से खुद गयी, चंद्रशेखर नाकाम रहे, कांग्रेस ने कुछ किया नहीं था। देवेगौड़ा-गुजराल कमजोर नेता थे तो उन्हें हटाकर जनता नरसिम्हा राव को ले आई। वाजपेयी की सरकार एक वोट से गिर गयी और कांग्रेस गठबंधन को मौका मिल गया।
कांग्रेस ने कभी कुछ किया ही नहीं! वो इस बार कुछ करेगी, ऐसी उम्मीद करना शायद प्रशांत किशोर की गलतफहमी थी। संभवतः नाकामी के बाद वो भी दूर हो गयी होगी। अभी के वीडियो में हम लोगों ने आधा हिस्सा ही देखा है। इस वीडियो के अगले भाग में हम सोशल मीडिया के इस्तेमाल और योगदान पर बात करेंगे। अगर आपको वीडियो पसंद आया हो तो इसे लाइक कर दें और चैनल सब्सक्राइब भी कर लें। आप अपने सुझाव और प्रश्न कमेंट्स में छोड़ सकते हैं। हम लोग इस ब्लॉग के अगले भाग के साथ फिर मिलेंगे। तबतक के लिए आज्ञा दीजिये!