यह लेख मूलतः मराठी पत्रिका “सांस्कृतिक वार्तापत्र” में प्रकाशित हुआ था

ये सवाल हमें रहीमतुल्लाह एम. सयानी पर ले आता है जो शुरू से कांग्रेस से जुड़े रहे थे। कई बार द्वि-राष्ट्र सिद्धांत पर चर्चा करने वाले लोग भी सयानी जैसे नेताओं का नाम नहीं लेते। जैसा कि आमतौर पर मुहम्मडेनों के बारे में प्रचारित किया जाता है, वैसी किसी मुफलिसी में रहीमतुल्लाह सयानी पले-बढ़े नहीं थे। खोजा समुदाय के एक अमीर खानदान से ताल्लुक रखने वाले रहीमतुल्लाह बदरुद्दीन तैयबजी के बाद कांग्रेस के प्रमुख बने थे। कांग्रेस की 1896 की बारहवीं वार्षिक सभा (अधिवेशन) की अध्यक्षता भी उन्होंने ही की थी। इस अधिवेशन के अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने कहा था कि ब्रिटिश शासकों के आने से पहले तक मुहम्मडेन भारत के शासक थे। बादशाह, दरबारी से लेकर अधिकारियों और जमींदारों तक सभी मुहम्मडेन ही थे। सत्ता की भाषा उनकी अरबी-फारसी-उर्दू जबान थी, भरोसे और जिम्मेदारी के काम उन्हें ही सौंपे जाते थे। हिन्दू कुछ थे, मगर वो मुहम्मडेनों की मर्जी, उनके आदेश से ही थे। किस्मत ने एक झटके से उन्हें उन्ही लोगों के बराबर में ला पटका था, जिनपर कल तक वो शासन कर रहे थे! अब वो सत्ता के करीब नहीं रह गए थे, बल्कि हिन्दुओं जैसी ही स्थिति में आ गए थे।

भारत में अंग्रेजी के बढ़ने का नतीजा ये हुआ कि हिन्दू तो सदियों से कोई विदेशी भाषा सीखते आ रहे थे, उर्दू-फारसी के बदले अंग्रेजी से उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई, लकिन मुहम्मडेन हिन्दुओं के जितनी मेहनत करके कुछ नया सीखने को तैयार नहीं थे। अपने बीते कल के गुरुर में वो अंग्रेजों की शासन व्यवस्था, उनकी भाषा, और सबसे बड़ी बात कि कल तक जिनपर राज किया, उनके बराबर हो जाना स्वीकार नहीं पाए। नतीजा ये हुआ कि मुहम्मडेन साल-दर-साल पिछड़ते गए और मुफलिसी की हालत में पहुँच गए। ऐसा नहीं था कि सोच की ये समस्या सयानी की कोई मनगढंत कल्पना थी। आंकड़े देखें तो पता चलता है कि 1867 तक जिन 88 लोगों ने स्नातक की परीक्षा पास की थी, उनमें सभी हिन्दू ही थे, एक भी मुहम्मडेन नहीं था।

अगर अंग्रेज हुक्मरानों की तरफ से देखें तो उनके लिए मुहम्मडेन की सत्ता हथियाने की सोच कोई ऐसी बात नहीं थी, जिसका उन्हें भली भांति पता न हो। जब बहादुर शाह जफ़र को बादशाह बनाने की कोशिशें 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद असफल हुई तो मुहम्मडेनों ने शासक बनने का ख्वाब छोड़ा नहीं था। इनायत अली के नेतृत्व में 1857-58 में वहाबी आन्दोलन चल रहा था। इसका मकसद भारत को दरूल-इस्लाम बनाना था। इनायत अली ने किसी भी 1857 के स्वतंत्रता सेनानी से हाथ नहीं मिलाया था और हिन्दुओं को अपने आन्दोलन से बिलकुल अलग रखा था। इसी आन्दोलन का नतीजा था कि इससे प्रेरित मुहम्मडेन आसानी से कांग्रेस में भी शामिल नहीं होते थे, दूसरी तरफ वहाबियत से प्रेरित मुहम्मडेन पर ब्रिटिश भी भरोसा नहीं करते थे। इसी खाई को पाटने के लिए सर सैय्यद अहमद खान ने “द लॉयल मोहम्मडेन्स ऑफ इंडिया” लिखी थी और बताया था कि भारत में इसाई अगर किसी का भरोसा कर सकते हैं तो वो मोहम्मडेन ही हैं। जब उन्होंने अलीगढ़ में 1877 में मोहम्मडेन एंग्लो-ओरिएण्टल कॉलेज की स्थापना की तो इसाई अंग्रेजों के प्रति वफादारी की भावना जगाना उसके लिखित उद्देश्यों में से एक था।

खुद सर सैय्यद अहमद खान अपने भाषण में मुहम्मडेनों को डराते, अलगाव की बात करते हुए कहते हैं –
और भारत का शासन किसके हाथ में होगा? मान लीजिये पूरी अंग्रेजी फ़ौज भारत छोड़ जाये और अपने तोप-बंदूकों जैसे हथियार भी साथ ले जाये तो भारत का शासक कौन होगा? क्या ये मुमकिन है कि दो लोग – हिन्दू और मुहम्मडेन – एक साथ एक गद्दी पर बैठें और बराबरी का शासन करें? हरगिज़ नहीं। ये जरूरी है कि दोनों में से एक, दूसरे को हरा दे और उनपर शासन करे। ऐसी उम्मीद करना कि दोनों बराबर रहेंगे, एक असंभव परिकल्पना है।

आगे बढ़कर जब हम इसे बंग-भंग यानि बंगाल के विभाजन के समय देखते हैं, तो ये और स्पष्ट नजर आता है। भारत के अन्दर ही एक मुहम्मडेन मुल्क, एक दरूल-इस्लाम बनाने का उनका सपना बंगाल के विभाजन से पूर्वी बंगाल और असम के हिस्सों के रूप में उन्हें स्पष्ट नजर आ रहा था। ढाका में 30 दिसम्बर 1906 को मुहम्मडेन नेताओं ने बंगाल के विभाजन की वकालत की और स्वदेशी आन्दोलन की निंदा की थी। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि किसी का इन मुद्दों पर ध्यान नहीं गया था। आज से चार दशक पूर्व ही सीताराम गोयल जी ने “हिन्दू समाज संकटों के घेरे में” स्पष्ट ही लिख दिया था कि हिन्दुओं को कम से कम पांच और से घेरा जा रहा है। इसमें उनके हिसाब से – इस्लाम, इसाई, कम्युनिस्ट, मैकुलेवादी और आधुनिकतावादी शामिल हैं। उनकी चेतावनियों के बारे में आज ये आराम से कहा जा सकता है कि बहुसंख्यक हिन्दुओं ने उनकी चेतावनी को साफ नजरंदाज कर दिया। हमें ये कहकर बहलाया गया कि “कुछ बात है जो हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा”। बस ये गायब कर दिया गया कि इसे सुनाकर बहलाने वाले इकबाल पाकिस्तान बनाकर भारत के टुकड़े करने के समर्थक थे।

हिन्दुओं का समाप्त हो जाना कोई ऐसा दिवास्वप्न नहीं जो पूरा न हो सकता हो। हाल के दौर में अफगानिस्तान से भागकर आते सिखों की सर पर गुरुग्रंथ साहिब लिए तस्वीरें भी हम सब ने देखी हैं और फिर जब तालिबान द्वारा सिखों को सुन्नी हो जाने, या मुल्क छोड़ देने का आदेश दिया गया तो पूरे विश्व की चुप्पी भी हम सभी सुन चुके हैं। पाकिस्तान और अफगानिस्तान से हिन्दुओं का ख़त्म होना अभी पिछले सौ वर्षों में ही हुआ है। पाकिस्तान से ही टूटकर बने बांग्लादेश में हिन्दुओं के साथ जो हो रहा है, वो पिछले दुर्गा पूजा के अवसर पर हम देख चुके और जैसे उनका खात्मा किया जा रहा है, वो भी हम देख ही रहे हैं। स्वतंत्रता से पहले यानि 1947 से पहले हिन्दुओं के लिए जगह कहाँ तक थी, और आज कहाँ तक है, उसका नक्शे पर अंतर देख लें तो हमें कौन समाप्त कर सकता है का दम भरने वालों को भी एक बार फिर से सोचना पड़ेगा।
सीताराम गोयल जी के मुताबिक स्वतंत्र भारत के मुसलमान कई बातें मानकर चलते हैं। इनमें से भी लगभग सभी आप टीवी पर बहसों के दौरान सुन चुके होंगे –
1. इस्लाम के आने से पहले तक भारत में कोई सभ्यता-संस्कृति नहीं थी और आज भारत में जो भी सभ्यता के नाम दिखता है वो मुहम्मडेन ही एकमात्र सच्चे दीन के साथ भारत लाये।
2. इस्लाम के साथ ही भारत में कला-संस्कृति, नैतिकता आदि का उदय हुआ, जहालत (सांस्कृतिक अन्धकार) से मुक्ति मिली और समाज प्रगतिशील हुआ।
3. भारत को शुद्ध करने का उनका मकसद कपटी अंग्रेजों के आ जाने की वजह से पूरा नहीं हो पाया क्योंकि धोखे से ईसाइयों ने सत्ता हथिया ली।
4. पाकिस्तान का बनना इस्लाम की विजय है लेकिन रावी से लेकर हुगली तक को फतह किये बिना गजवा ए हिन्द का उनका ख्वाब अधूरा है।
5. इस्लाम और मुहम्मडेन का ये हक और फर्ज है कि वो नैतिक-अनैतिक या बल प्रयोग जैसे हर तरीके से भारत को दारुल-इस्लाम बनाये और शरिया कानून लागू करे।

ये गौर करने लायक है कि 1896 के दौर में रहीमतुल्लाह सयानी जो कह रहे थे, वही सैयद अहमद खान बाद में कह रहे थे, वही जिन्ना 1948 में दोहराते सुनाई देते हैं, उसी की बात सीताराम गोयल अपनी 1980 के दशक की पुस्तक में कर रहे हैं, और वही आपको आज टीवी डिबेट में सुनने को मिल जाता है। ये एक ही सोच है, भारत को हथिया लेने की, जो कभी बदली नहीं। जो हजार वर्ष पहले हमला करने की तकनीक सीधा सैन्य आक्रमण थी, लोगों को जबरन मुहम्मडेन बनाना थी, बच्चों को गुलाम बनाना और स्त्रियों से बलात्कार करना थी, वो आज बदलकर छिटपुट हमले, जनसँख्या में बदलाव के जरिये चुनावों को प्रभावित करना हो गयी है। आक्रमण के मात्र तरीके बदले हैं, आक्रमण करते रहने की नीति नहीं बदली।

By anandkumar

आनंद ने कंप्यूटर साइंस में डिग्री हासिल की है और मास्टर स्तर पर मार्केटिंग और मीडिया मैनेजमेंट की पढ़ाई की है। उन्होंने बाजार और सामाजिक अनुसंधान में एक दशक से अधिक समय तक काम किया। दोनों काम के दायित्वों के कारण और व्यक्तिगत रूचि के लिए भी, उन्होंने पूरे भारत में यात्राएं की हैं। वर्तमान में, वह भारत के 500+ में घूमने, अथवा काम के सिलसिले में जा चुके हैं। पिछले कुछ वर्षों से, वह पटना, बिहार में स्थित है, और इन दिनों संस्कृत विषय से स्नातक (शास्त्री) की पढ़ाई पूरी कर रहें है। एक सामग्री लेखक के रूप में, उनके पास OpIndia, IChowk, और कई अन्य वेबसाइटों और ब्लॉगों पर कई लेख हैं। भगवद् गीता पर उनकी पहली पुस्तक "गीतायन" अमेज़न पर बेस्ट सेलर रह चुकी है। Note:- किसी भी तरह के विवाद उत्प्पन होने की स्थिति में इसकी जिम्मेदारी चैनल या संस्थान या फिर news website की नही होगी लेखक इसके लिए स्वयम जिम्मेदार होगा, संसथान में काम या सहयोग देने वाले लोगो पर ही मुकदमा दायर किया जा सकता है. कोर्ट के आदेश के बाद ही लेखक की सुचना मुहैया करवाई जाएगी धन्यवाद

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