बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों से आज गुजरें तो एक अनोखी बात पर ध्यान जाएगा। बल्कि ग्रामीण क्यों, राजधानी पटना से बीस किलोमीटर भर बाहर निकल जाएँ तो आपको सरकारी विद्यालय दिखने लगेंगे। अपने अनोखे गुलाबी रंग के होने के कारण, दर्जनों कच्चे मकानों-झोपड़ियों के बीच इकलौता पक्का मकान होने की वजह से, आते-जाते बच्चों की चहल-पहल के कारण, ये सरकारी स्कूल दिख ही जाते हैं। इनमें जो अलग दिखेगा वो है इनके नाम में जुड़ा “उत्क्रमित” शब्द। शायद ही कोई विद्यालय अब आपको सीधे मध्य विद्यालय, या सीधा उच्च विद्यालय दिखेगा। जो भी प्राथमिक विद्यालय थे वो अब उत्क्रमित मध्य विद्यालय हो गए हैं, जो मध्य विद्यालय थे वो उत्क्रमित होकर उच्च विद्यालय हो गए हैं।
स्कूल को “उत्क्रमित” कर देने के लिए क्या करना होगा? चार कागजों पर नाम ही तो बदलना है, बस हो गया काम। वास्तविकता क्या होगी? स्कूल में जहाँ छठी कक्षा तक के बच्चे थे वहाँ आठवीं तक के, या जहाँ आठवीं तक के थे, वहाँ दसवीं तक के बच्चे आने लगें तो बच्चों को सँभालने के लिए ज्यादा शिक्षक भी तो चाहिए। क्या नयी शिक्षकों की बहाली की ख़बरें आयीं? इतने बड़े पैमाने पर तो शिक्षकों की बहाली की कोई सूचना नहीं। अचानक बच्चों की गिनती बढ़ेगी तो जिस मिड डे मील का ढिंढोरा पीटा जाता है, उसकी व्यवस्था भी बढ़ानी पड़ती होगी। उसकी व्यवस्था में कोई बड़े बदलाव भी सुनाई नहीं दिए। जगह तो सिमित थी, शौचालय, पानी पीने से लेकर पुस्तकालय तक की जो व्यवस्था एक अदद विद्यालय में होनी चाहिए, जिसके न पाए जाने पर किसी भी निजी विद्यालय पर ताला जड़ दिया जाता, उसी जांच पर सरकारी विद्यालयों की क्या स्थिति होगी?
विद्यालय का मूल काम शिक्षा देना होता है। पोषण देना उसका मुख्य काम नहीं, स्वच्छता-स्वास्थ्य का ध्यान रखना उसका मूल काम नहीं। इसलिए विद्यालय मिड डे मील कैसा दे रहा था, बच्चों को हाथ धोना सिखा रहा था, शिक्षक गाँव में घूमकर खुले में शौच करने वालों को रोक रहे थे, इन सबसे कितनी लिपा-पोती की जाएगी। वो जो किस्से कहानियों में सुनाया जाता है कि फलाने साहब ऐसे नदी पार करके, वैसे स्कूल तक पहुँचते थे, वैसे आईएएस अफसर बनाने वाले सरकारी विद्यालय आज कहाँ हैं? पिछले दस-बीस वर्षों में कोई ऐसे विद्यालय बचे हैं जो ये दावा ठोक सकें कि उनके विद्यालय से पढ़े बच्चे आज कहीं डीएम/एसपी हैं, कहीं चीफ इंजिनियर हैं, कहीं वैज्ञानिक के रूप में नाम कमाया, कहीं बड़े चिकित्सक हुए, कोई बड़ा व्यापार खड़ा कर लिया? मिल्लेनियल कहलाने वाली पीढ़ी की सफलता में सरकारी विद्यालयों का योगदान शून्य की ओर जा रहा है। वो अपने शिक्षकों की वजह से नहीं, सरकारी शिक्षा व्यवस्था के वाबजूद सफल होने के लीये जाने जाते हैं।
जेपी आन्दोलन ने बिहार की उच्च शिक्षा व्यवस्था की दुर्दशा कर दी थी। इस आन्दोलन से निकले नेताओं में पक्ष और विपक्ष दोनों में भ्रष्टाचारी थे। लालू, सुशील मोदी, रविशंकर, रामविलास, नीतीश, जैसे नेताओं ने छात्रों को हड़ताल करना, शिक्षण को बाधित करना भर सिखाया। इनका योगदान ये है कि आज बिहार के 17 विश्वविद्यालयों में से आधे भी ऐसे नहीं हैं जो ये दावा कर सकें कि वहाँ स्नातक की पढ़ाई तीन वर्षों में पूरी हो जाती है। इतना काफी नहीं था तो इसी दौर के जो नेता राजद, जद (यू) और भाजपा में रहे और पिछले दो दशकों में बदल-बदल कर सत्ता संभाली, उन्होंने विद्यालयों का भी सत्यानाश कर डाला। अब शिक्षण से जुड़े लोग पटना में केवल हड़ताल करते और फिर पुलिस की लाठी खाते नजर आते हैं। अभी-अभी बिहार का एक बड़ा पर्व “छठ” बीता है। इसमें जो बाहर पढ़ाई कर रहे बच्चे घर लौटे थे, और अब फिर भीड़ भरी रेलगाड़ियों में जैसे तैसे वापस जायेंगे, या घर ही नहीं आ पाए क्योंकि वो जिस राज्य में रह रहे थे, वहाँ छुट्टी नहीं थी, उसकी वजह यही शिक्षा व्यवस्था है। ठीक होती तो बच्चों को कोटा तो नहीं भेजना पड़ता न?
इस पूरे का नतीजा ये होने वाला है कि शिक्षा, विशेषकर ढंग की उच्च शिक्षा खर्चीली होती जायेगी और इस तरह केवल धनिकों या बलिदान का आत्मबल रखने वालों के ही अधिकार में रह जाएगी। जो बड़े जोश से समाजवादी नारों में कहा जाता है – अमीर अधिक अमीर और गरीब ज्यादा गरीब होता जा रहा है, उसके लिए कहीं न कहीं, कहीं न कहीं, समाजवादी व्यवस्था और समाजवादी नेता ही जिम्मेदार हैं। बाकी कई जगहों पर बच्चे काफी कठिनाई से स्कूल तक पहुँचते हैं, उनसे तुलना करके अपनी स्थिति को अच्छा बताना हो, तो वो भी कर ही सकते हैं।