लेखक: अवधेश झा

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी उत्सव वास्तव में विशुद्ध आत्मा का ही उत्सव है। श्रीकृष्ण परब्रह्म स्वरूप परमात्मा आदि नारायण के अवतार हैं और सत्य रूपी धर्म की रक्षा के लिए पृथ्वी पर प्रकट हुए और धर्म की स्थापना किए।

जस्टिस राजेंद्र प्रसाद (पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय, पटना) से जब मैंने पूछा कि आप गीता का अध्ययन निरंतर करते रहते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के संदर्भ में कुछ विचार दीजिए; तो उन्होंने कहा “श्रीकृष्ण का स्वरूप तो सभी आत्म स्वरुप में विद्यमान है, उसे प्रकट करने की जरूरत है, अपने कृष्ण को अपने स्वरूप में प्रकट कीजिए तथा उनके कहे आत्म विचारों को अपने में धारण कीजिए। जिस कृष्ण को आप बाहर ढूंढ रहे हैं, वह चेतन स्वरूप कृष्ण आपके भीतर ही विराजमान है। उनका दर्शन कीजिए। आगे उन्होंने कहा कि “श्रीकृष्ण ने गीता” में कहा है कि:
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।
अर्थात: सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है।”

इस श्लोक को सुक्ष्म भाव से दर्शन करेंगे तो ज्ञात होगा कि; श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, आत्मा की चार अवस्था है। प्रथम अवस्था, जिसमें आत्मा प्रकृति भाव में रहता है, दूसरी अवस्था जिसमें आत्मा स्वप्नभाव में रहता है, तीसरी अवस्था जोकि आत्मा की स्वयं की अवस्था है, (जिसे सुषुप्ति की अवस्था कहते हैं); में जागती रहती है और चौथी अवस्था तुरीय अवस्था है जोकि आत्मा की चिर अवस्था है। वास्तव में, आदिनारायण के अवतार श्रीकृष्ण आत्मा की सुषुप्ति अवस्था में ही प्रकट हुए थे। उस समय प्रकृति की समस्त जड़ भाव शांत था और समस्त चेतन भाव जागृत था और उसी अवस्था में श्रीकृष्ण रूपी मुनि प्रकट हुए।

श्रीमद्भागवत गीता का अठारह अध्याय श्रीकृष्ण ने आत्मा के सुषुप्ति अवस्था के अठारह योग खंड ही है। इसका संबंध योग पथ से आत्मा की यात्रा ही है। प्रथम अध्याय विषाद योग यहां भगवान का उदय ही आत्मा के शोक भाव को मुक्त करना था। प्रथम शोक, जो उनके आत्मस्वरुप माता – पिता, पृथ्वी, विप्र और गौ आदि को उबारे। दूसरा शोक अर्जुन को, जो धर्मयुद्ध करने से पूर्व धर्मसंकट में फंस गया था। श्रीकृष्ण के प्रकट होते ही कई युद्ध सामने खड़ा था और वह जन्म से ही श्रेष्ठ योद्धा की तरह लड़ते चले गए। वास्तव में, उनके सम्मुख जो आत्मा जिस भाव की प्रवृत्ति में (जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार) और स्मृति में (जन्म जन्मांतर का आसुरी वृति को आगे बढ़ाना) आदि से ग्रसित था; श्रीकृष्ण उन सबको उस भाव से मुक्त किए। उन्होंने अपने विराट रूप में दिखा दिया कि प्रकृति की व्यष्टि और समष्टि दोनों रूप एक ब्रह्मसूत्र की तरह उनमें पिरोया है। समस्त क्रिया उस परमसत्य के अधीन हो रहा है तथा जो जिस भाव या स्वरूप में है उसकी वैसी ही गति हो रही है। इस समस्त गति में भाव का ही रूपांतरण हो रहा है तथा आत्मा तो स्थिर, नित्य, सत्य और अविनाशी है।
श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में एक बुद्धि रूपी सारथी की भूमिका का उत्तम और स्पष्ट उदाहरण दिए। अगर जीवन के संग्राम में आत्मा महारथी है, तो बुद्धि ही सारथी है, मन उसका लगाम है और इंद्रिय घोड़ा है। जिसके बुद्धि में भगवान का निवास हो, उसकी आत्मा संसार के समस्त धर्मयुद्ध का विजेता ही होगा।
माधव ने गाय, पृथ्वी और ब्राह्मण से अपना जो लगाव दिखाया। वास्तव में, यह तीनों उन्हीं का निवास स्थल है तथा उन्हीं के आग्रह पर वह प्रकट हुए थे। अब इन तीनों को सूक्ष्मता से देखेंते तो पाएंगे कि “गाय” पूर्ण ब्रह्म स्वरूप हैं, जिसमें परम तत्व के समस्त भाव का चेतन स्वरूप विद्यमान है। अर्थात उसमें सम्पूर्ण ब्रह्मांड का चेतन भाव स्थित है। इसलिए, आदि काल से ही गौ सेवा, गौ दान बहुत बड़ा धर्म है; इसलिए, उस धर्म स्वरूप में भगवान निवास करते हैं तथा समस्त ब्रह्मकर्म, अग्निकर्म, उपासना कर्म आदि “गौ” से ही सम्पन्न होता है। एक और रहस्य है कि गोविंद का गायों से संवाद अपने मुरली बजा कर करते थे। नंदबाबा के यहां नौ लाख गाय थी और एक बाल गोपाल सबको, बांसुरी के माध्यम से ही संवाद करते थे।
ब्राह्मण, ब्रह्म विचारों ने स्थिर रहकर, ब्रह्म कर्म करता है। श्रीहरि तो परब्रह्म है तो वह तो ब्रह्म विचारों में ही स्थित रहेंगे तथा जैसे मुरली की ध्वनि से निःशब्द ही संवाद स्थापित करते थे, तो संवाद स्वरूप में उनका “ब्रह्म संवाद” ही था तथा जब – जब सत्य रूपी धर्म का नाश होता है अर्थात ब्रह्म विचारों का नाश होने लगता है। तब तब सत्य स्वरूप परमात्मा अवतार लेकर अपने ब्रह्म ज्ञान, आत्म ज्ञान का विस्तार करते हैं। उस ब्रह्म विचारों का चित तो “ब्राह्मण” ही है।
अब “पृथ्वी” की बात करें तो यह समस्त क्रिया प्रकृति के पृथ्वी भाव में ही हो रहा है। पृथ्वी, तत्व, भाव और चेतन में विद्यमान है। पृथ्वी ही समस्त स्थूल शरीर और स्थूल जगत का आधार है। पृथ्वी ही समस्त कर्मकांड का भी आधार है और ईश्वर पृथ्वी के स्वरूप में ही “अपने चेतन भाव” में भी स्थित हैं, पूजित होते हैं और दर्शन देते है। लेकिन, पृथ्वी में तमोगुण की प्रधानता के कारण इन्हें हमेशा सतोगुण की उपासना करते रहना पड़ता है। इसलिए, सत्य स्वरूप ईश्वर पृथ्वी पर प्रकट होकर बार बार असत्य का नाश करते हैं।
बाल गोपाल अपने बाल्य स्वरूप में दिखा दिया की सम्पूर्ण ब्रह्मांड उनके मुख में है। अर्थात वह आत्मा थे और प्रकृति का समष्टि भाव “यह ब्रह्मांड” उनके आत्म स्वरूप मुख में है। क्योंकि, समस्त ब्रह्मांडीय क्रिया आत्मा में ही विद्यमान है। दूसरा उन्होंने अर्जुन को विराट रूप में दिखाया कि उनका स्वरूप ही ब्रह्मांड है। जिसका क्षेत्र स्थूल पृथ्वी से सत्य आकाश तक है अर्थात यहां भी वह सत्य रूपी आकाश जो ब्रह्म में स्थित है; पृथ्वी का आधार है तथा वह आधार लंब श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिए, जैसे ही आपमें श्रीकृष्ण का भाव प्रकट होगा, आप अपने चेतन स्वरूप की समष्टि भाव में स्थित हो जायेंगे और अपने श्रीकृष्ण स्वरूप आत्मा के प्राकट्य उत्सव मनाएंगे। जय श्रीकृष्ण

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