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लेखक: अवधेश झा
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शिवजी को समर्पित यह श्रावण मास का शुभारंभ हो चुका है। शिव भक्त अनन्य प्रकार से शिवभक्ति में लीन है। यह चातुर्मास मास जोकि अध्यात्मिक उत्थान के लिए महत्वपूर्ण है, इसे आदि काल से ही आध्यात्मिक अनुसंधान के दृष्टि से सर्वोत्तम माना गया है। वर्षा ऋतु होने से इसमें जल तत्व की प्रधानता होती है। शिव स्वयं अपने जटाओं में हरि पद पद्म गंगा धारण किए हुए हैं। यह भागीरथी गंगा भगवान नारायण के चरण कमल से, ब्रह्म जी के कमंडल में ब्रह्मलोक आई और वहां से शिव के जटाओं में, और तदुपरांत धरती पर संपूर्ण जीवों के कल्याण व मुक्ति के लिए लाया गया। इससे स्पष्ट है कि मुक्ति का आदिकाल से ही महत्व रहा है और भागीरथी प्रयास सबके लिए आवश्यक है।
शिवत्व विषय पर मैंने अध्यात्म दर्शन के ज्ञाता जस्टिस राजेंद्र प्रसाद (पूर्व न्यायाधीश: पटना उच्च न्यायालय, पटना) से उनका विचार जानना चाहा। श्री प्रसाद स्वयं शिव भक्त भी है तथा लगातार उन्तीस (29) वर्षों तक उन्होंने पैदल कावड़ यात्रा कर वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग महादेव को गंगाजल अर्पित किए है इस विषय पर उन्होंने कहां; “शिव मुक्ति दाता हैं और शिव तत्व की उपासना से सभी तरह की मुक्ति संभव है। शिव की उपासना तभी संभव है जब आप सांसारिक दुर्गुणों का विषपान कर लेंगे। अपने अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि विषों का भीतर ही दमन कर शुभ संकल्प को ही बाहर प्रकट करेंगे। शिव से यही शिक्षा मिलती है। शिव भी अपना शिवत्व विषपान के बाद ही स्थापित किए है, संसार में व्याप्त विष रूप काल समस्त संसार को नष्ट कर सकता है, इसलिए इसका भीतर ही दमन कर शुभता को प्रकट करना ही वास्तविक शिव उपासना है। त्रिदेव में शिव आदि, अजन्मा हैं। सृष्टि संचालन हेतु, नारायण कई अवतार लिए है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भेद दृष्टि से अलग अलग प्रतीत होते हैं, लेकिन अभेद दृष्टि से सब एक ही है। उसी असमानता का नाश शिव करते हैं। भेद दृष्टि से मुक्ति दिलाकर, आत्म स्वरूप प्रदान करना ही शिव का कार्य है। यह शिव तत्व की उपासना से संभव है।”
आध्यात्मिक दृष्टि से भी देखा जाए तो शिव जो कि अपने आत्मस्थिति में हैं, और उनकी आत्मस्थिति में न विष बाधक है और नहि सर्प; जबकि, उनके गले में सर्प है और गले के अंदर विष का भंडार है। ऐसे शिव जो स्वयं अमृत हैं (जिसकी मृत्यु संभव नहीं है, वह केवल शिवात्मा ही हो सकता है) अर्थात आत्म स्वरूप प्रदान करने वाले शिव है। अमरत्व प्रदान करने वाले शिव हैं। उस, शिव की आराधना से शिवत्व की प्राप्ति होगी। सूक्ष्मता से देखा जाए तो, शिव हरि के उपासक हैं और श्रीहरि पालनकर्ता हैं। तो अब प्रश्न उठता है, कि प्रलय या संहार किसका होगा? और ईश्वर संहार क्यों करेंगे? इस प्रश्न के उत्तर से पूर्व सृजनकर्ता और पालनकर्ता को समझना होगा और उनसे जुड़े ईश्वर को समझना होगा। जिस त्रिदेव को दृश्य जगत में, भेद दृष्टि से भिन्न समझ रहें है, पर वह वास्तव में एक ही है। व्यक्त भाव में जगत संचालार्थ ईश्वर के तीन कार्य सृजन कार्य, पोषण और संहार कार्य है। यहां आत्मा तो सत्य, नित्य, अजन्मा और अमर है उसका कभी नाश नहीं होता, तो उस स्थिति को यथास्थिति बनाए रखने का कार्य भगवान विष्णु का है और आत्मा के इस सृष्टि में अधर्म तथा असत्य की स्थिति दीर्घ काल तक नहीं रह सकता है। इसलिए, नारायण उस स्थिति को पुनः सत्य रूपी धर्म की स्थिति में स्थापित करने हेतु शुद्ध, स्वयं के स्वरूप में अवतरित होते है और धर्म रूपी सत्य की स्थापना करते हैं।
अब प्रश्न शेष है कि आत्मा अजन्मा है, तो आत्मा जन्म कैसे लेगी? और इसका संहार कैसे संभव है? तथा मुक्ति किसे और किससे चाहिए? तो जैसा शास्त्रों में कहा गया है कि शुद्ध सच्चिदानंद स्वरुप आत्मा जब “प्रकृति रूप और नाम” की “उपाधि शरीर” धारण करता है, जो शरीर ब्रह्मा द्वारा प्रदान किया जाता है; उस उपाधि में भी शुद्ध स्वरूप की यथास्थिति बनाए रखना तथा प्राकृतिक रूप से पुष्टता प्रदान करना, भगवान विष्णु का कार्य है और भगवान शिव प्रकृति के अधिष्ठाता हैं और अपने आत्म स्वरूप में हैं तथा उनका आवरण ही प्रकृति है। उस प्रकृति तत्व से मुक्त करना ही शिव का कार्य है। यह शरीर प्रकृति के आवरण में रहने से, अज्ञानतावश स्वयं को प्रकृति ही समझ लेता है और शरीर से आसक्ति, तथा सांसारिक मोह, माया के बंधन में बंध कर अपने चेतन स्वरूप को भूलने लगता है तभी वह चेतन स्वरूप शिव प्रकट होकर उसे उस बंधन से मुक्त करता है। इसलिए, शिव काल भी है और स्वयं काल से परे भी है। शिव व्यक्त को अवक्त भाव का दर्शनकर्ता भी है और प्राकृतिक स्वरूप का नाश कर चेतन स्वरूप प्रदान करने वाले मुक्ति दाता भी हैं। तथा, वह स्वयं शुद्ध स्वरूप शिवोहं, शिवोह्म प्रदाता भी हैं।
अब शिव का जल से संबंध पर बात करें तो; जल प्रकृति का जीवन है और जल, जल को ही आकर्षित करती है। इसलिए, शिव प्रकृति के अधिष्ठाता हैं तो अपने प्राकृतिक भाव में जल से प्राकृतिक जीवन का सवावेश करा रहें है। उनके जटाओं जो जल है, वह ब्रह्म जल है। यद्यपि इस जल का भाव गत संबंध भगवान विष्णु से है और नारायण “शुद्ध ब्रह्म स्वरूप” में स्थित है, वहां से ब्रह्म जी जो ‘स्थूल जगत के समष्टि’ रूप हैं। तथा ब्रह्म के शुद्ध स्वरूप चेतन भाव से उत्पन्न होकर स्थूल जगत के सृजनकर्ता है। उन्होंने, इस ब्रह्म के क्षीर सागर से, वह ब्रह्म के जल को, शिव के प्राकृतिक भाव में स्थापित किया। गंगा का आगमन ब्रह्म के शुद्ध स्वरूप से होने के कारण स्वयं मुक्तिदायनी हैं, और शिव मुक्तिदाता है। तो ऐसे में शिव पर गंगाजल अर्पित करना ही स्वयं ब्रह्म का दर्शन करना तथा अपने शिव के स्वरूप का दर्शन करना है। तथा यही अवस्था दीर्घकाल तक रहने से शिवोहम, शिवोहं, शिवोह्म संभव है।
शास्त्र कहता है; शिव का अर्थ अपने शुद्ध स्वरूप में शान्त व तुरिय अवस्था में रहना है; जहां आनंद ही आनंद है। और शिव परमानंद है।
सर्वाननशिरोग्रीव: सर्वभूतगुहाशय:।
सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगत: शिव:।। -श्वेता० ४/१४
जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान है, जो सर्वव्यापक है, वही सुखस्वरूप भगवान् शिव सर्वगत अर्थात् सर्वत्र प्राप्त है।
इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है:
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरुपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।।
-श्वेता० ४/१४
परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है। वह परम शांति शिव ही है।
नमामि देवं परमव्ययं तं, उमापतिं लोकगुरुं नमामि।
नमामि दारिद्रविदारणं तं, नमामि रोगापहरं नमामि।।
हे परमदेव! अपरिवर्तनीय, और मानव बुद्धि से परे शिवशम्भु ! मैं श्रद्धा और आदर सहित आपको प्रणाम करता हूँ। हे उमापति! जगत के अध्यात्मिक गुरु! आप हम सभी की दरिद्रता, समस्त पापों व रोगों का निवारण करते हैं l मैं आपको सादर नमन करता हूँ।