दीपावली के नजदीक आते ही “कुछ मीठा हो जाये” वाला प्रचार कहीं न कहीं सुनाई दे जाता है। कभी कभी इस प्रचार के सुनाई देने पर चेहरे पर मुस्कान इसलिए आ जाती है, क्योंकि किसी दौर में कैडबरीज के चोकलेट रईसी की पहचान होती थी। लड़के उसे किसी खास को उपहार में देने के लिए ही खरीदते थे, ऐसे कोई खुद खरीद के नहीं खा लेता था। उदारीकरण-वैश्वीकरण का दौर तबतक नहीं आया था। कांग्रेस के लाइसेंस-परमिट राज में ट्रांजिस्टर होना बड़ी बात थी। टीवी-फ्रिज तो बहुत बाद में आया और उसके बाद भी घर में फोन लगवा लें, ऐसा “बड़े लोग” ही कर सकते थे।
बड़ी-बड़ी चीजों पर ही नहीं, ये छोटी मोटी चीजों पर भी लागू था। लाइन लगवाकर महीनों बाद सिर्फ स्कूटर ही नहीं मिलता था। एक अदद स्पोर्ट्स शू तक खरीदना तभी संभव था जब कोई मेट्रो में, किसी बड़े शहर में जाये या कोई विदेश से ले आये। पायलट का पेन किसी लड़के की जेब में, किसी छात्र-छात्रा के पास दिख जाये, ये चर्चा का विषय होता। आज जैसे लिखो फेंको वाली कलम मिल जाती है, और हम लोग उसे इस्तेमाल के बाद फेंककर धरती पर प्लास्टिक कचरा बढ़ाने में अपना योगदान देते हैं, तब वैसा नहीं था।
लोग स्याही वाली कलम से लिखते जिसका निब टूटने पर बदला जाता। स्याही ख़त्म होती तो फिर से भर ली जाती। “रीयूज-रीसाईकल” जैसे सिद्धांत सिखाने के लिए बड़े-बड़े एनजीओ के आयोजन करने की कोई जरुरत नहीं थी। पाठ्यक्रम की किताबें हमेशा खरीदी नहीं जाती, किसी बड़े की किताबें, छोटों को, कक्षा बदलते ही “रीयूज” करने के लिए दे दी जातीं। बड़े की पतलून को पहले छोटा इस्तेमाल करता, बाद में फुल पेंट का हाफ पेंट और बचे कपड़े का झोला बनकर “रीसाईकल” भी अपने आप हो जाता था।
दीपावली के आगमन को आज जैसे हम लोग माता लक्ष्मी के आगमन का अवसर मानकर एक विदेशी शब्द “अमीरी” से जोड़ते हैं, तब वैसा नहीं होता था। हमारे पास अपना “सम्पन्नता” नाम का शब्द था। जितना है, उसी में संतुष्ट हैं, पड़ोसी का बढ़ना देखकर आप कुढ़ नहीं रहे, तो अपने पास उपलब्ध संसाधनों में संपन्न तो आप है हीं। आज जब दीपावली पर सफाई की बात होती है, तो ध्यान जाता है कि कितनी ऐसी चीजें हैं जो नए दौर में आसानी से उपलब्ध थीं, मेरे जैसे साधारण लोग भी खरीद सकते थे। कई वर्षों से अब फिर से फाउंटेन पेन प्रयोग कर रहे होते हैं, झोला रखते हैं पोलीथिन के लिए मना करते हैं।
कचरा बढ़ाने में थोड़ा कम योगदान रहे, ये कोशिश हम इसलिए भी करते हैं क्योंकि बाकी चीजों में शू-शासन बाबु का बिहार भले पीछे हो, गंदगी के मामले में ऐसा नहीं है। कचरे और गंदगी से लेकर प्रदुषण तक के मामले में बिहार की पटना, गया और मुजफ्फरपुर जैसे तथाकथित शहर टॉप पर होते हैं। बहुत कोशिश करने के बाद भी फ़िलहाल हम पुराने लैपटॉप, सेल फ़ोन जैसे कचरे से निपटने का कोई अच्छा तरीका सोच नहीं पाए हैं। पेड़ों के कटने, तालाबों को भरकर निर्माण कर देने का भी असर होगा ही। चालीस वसंत देख चुके अधिकांश लोग बता देंगे कि अब वसंत रूठा हुआ सा आता है। मनुष्यों को अपनी आदतों में सुधार लाने की जरुरत तो है।
इसके लिए जो कोशिशें होती हैं, वो आम तौर पर नाकाम, बेअसर (या सरकारी बेवकूफी) होती हैं। उदाहरण के तौर पर हर थोड़े दिन में प्लास्टिक बैन सुनाई देता है और फिर कुछ दिनों में पोलीथिन दिखने लगता है। दीपावली पर लिबरल जमातें पटाखों के शोर से लेकर धुंए तक से परेशान होने के दावे करेंगी। ठीक हिन्दुओं के ही पर्व-त्योहारों पर जो #लेली (लेफ्ट-लिबरल) गिरोह ऐसी “वर्च्यु सिग्नलिंग”, यानि खुद को महान और हिन्दुओं को नीचा दिखाने की कोशिशें शुरू करते हैं, उससे आम भारतीय को परेशानी तो होती ही है। त्योहारों में से हंसी-ख़ुशी, उल्लास के अवसर निकाल दिए जाएँ, तो त्यौहार मर जायेंगे। त्योहारों से संस्कृति, और संस्कृति न होने पर धर्म जायेगा।
इनसे निपटने के हमारे प्रयास शुरू में बहुत सफल नहीं हुए थे। आज देखें तो सोशल मीडिया के कई इलाकों से वर्च्यु सिग्नलिंग करने वालों को खदेड़ दिया गया है। चेहरा बदलने में #लेली गिरोह माहिर होते हैं, इसलिए जब फेसबुक से खदेड़ा गया तो ये ट्विटर पर और अब ज्यादातर यू-ट्यूब या इन्स्टाग्राम पर नजर आते हैं। ये हमें वहाँ ले आता है जहाँ से हमने बात शुरू की थी – यानि चोकलेट पर! कैडबरीज हमारे दौर में महंगी होती थी, लेकिन आज के दौर में ऐसा रहा नहीं। एलिट क्लास का मतलब अब हर्शिज जैसे ब्रांड होते हैं।
कैडबरीज के दस रुपये से कैडबरीज सिल्क के पचास रुपये तक ही कीमतें भी नहीं रहीं, अब हर्शिज जैसे चोकलेट बहुत महंगे भी होते हैं। इस हेर्शिज के संस्थापक मिल्टन हर्शी नाम के एक व्यक्ति थे। इनकी प्रयोगधर्मिता से परेशान होकर इन्हें अपरेंटिस होने के दौर में ही काम से निकाल दिया गया। इन्होने जो पहली कंपनी बनायीं वो असफल हुई। दूसरी बनाई तो वो भी दिवालिया हुई। तीसरी कंपनी को भी घाटा झेलकर बंद करना पड़ा। चौथी बार जो कंपनी बनाई, वो थोड़ी ठीक-ठाक चली। बार-बार प्रयासों के बाद पांचवी बार में वो कंपनी बनी, जिसे हम-आप आज जानते हैं। हमारे त्योहारों पर बार-बार हमलों के दौर में हर्शिज के बार बार प्रयास को याद कर लीजिये।
पटाखों पर प्रतिबन्ध शुरू करने के भाजपाई नेता डॉ हर्षवर्धन वाली मूर्खता को मिल्टन का नौकरी से निकाला जाना मान लीजिये। एक-आध मोर्चों पर मिली असफलता को हर्शिज की शुरुआती कंपनियों का असफल होना समझिये। जो रीसाईकल-रीयूज हमारी संस्कृति में ही है, उसे हमें किसी एनजीओ या सेलेब्रिटी से सीखना होगा, या हमें ही उन्हें सिखाना चाहिए ये सवाल उठाइये। बाकी दीपावली अंधकार पर प्रकाश की विजय का भी पर्व है, ये तो याद ही होगा?