प्रयावरण संरक्षण के लिए ही बना होगा न, अगर नेशनल पार्क बनाया गया है तो? अमेरिका का येलोस्टोन नेशनल पार्क दुनिया के सबसे पुराने राष्ट्रिय उद्यानों में से है। इसकी स्थापना 1872 में ही हो गयी थी। अब पर्यावरण संरक्षण के लिए बना है तो जो स्थिति थी वैसे ही छोड़ देना उचित था। ये मोटी सी बात लेकिन पर्यावरण संरक्षण वाली “हाउ डेयर यू” ग्रेटा टाइप जमात की बुद्धि में कैसे घुस जायेगी? तो उन्होंने स्थानीय समुदाय के तौर-तरीकों को बदलकर जबरन इसे अपने हिसाब से ढालने की शुरुआत की। शिकार इत्यादि पर प्रतिबन्ध लगे। शिकारी पशुओं की गिनती कम की गयी। नतीजा ये हुआ कि “एल्क” जो कि गोजन यानी बारहसिंगे की एक प्रजाति होती है, उसकी आबादी अनियंत्रित होने लगी।
जब 1968 में इस पार्क में मनुष्यों के बारहसिंगे के शिकार पर भी प्रतिबन्ध लगा तो एल्क की आबादी बहुत तेजी से बढ़ने लगी। जब 5000 से ये गिनती 20000 के पास पहुँच गयी तो वन-पर्यावरण से जुड़े अधिकारियों ने एल्क पकड़-पकड़ कर उन इलाकों में भेजना शुरू किया, जहाँ से एल्क समाप्त हों गए थे, वहाँ इन्हें भेजना शुरू कर दिया। हजारों को कहीं ले जाना कितना संभव होता? तो एल्क की बढ़ी आबादी ने चर-चर के हरियाली को समाप्त करना शुरू किया। नए छोटे पौधे उग नहीं पाते तो पक्षियों के लिए घोंसले बनाने की जगह कम होने लगी। पक्षी कम हुए, वो फल कम खाते तो उनकी बीट के जरिये बीजों का प्रसार बंद हुआ।
पौधों और पक्षियों के कम होने से अगले स्तर यानि लोमड़ी इत्यादि पर असर हुआ। वृक्ष कम थे तो वर्षा कम हुई, छोटी नदियों पर असर हुआ। नदियों का जलस्तर कम होते ही ऊदबिलावों पर असर हुआ। ऊदबिलाव नदियों के किनारे छोटे छोटे बांध बना लेते हैं। इनमें पानी ठहरता है और मछलियों के अंडे बहते नहीं, इससे मछलियों की आबादी बढ़ती रहती है, ऊदबिलावों के लिए प्रयाप्त भोजन भी रहता है। पानी कम हुआ तो ऊदबिलावों के बांध सूखे रहे, मछलियाँ, ऊदबिलाव और नदी का जीवन चक्र सभी प्रभावित हुए। पानी की कमी होते ही एल्क (बारहसिंगे) इधर उधर पलायन करके नेशनल पार्क की और जगहों पर चारा खोजने लगे।
इन सबसे थक हारकर आखिर येलोस्टोन नेशनल पार्क में भेड़िये लाने की बात हुई। शिकारी पशु, एल्क की जनसंख्या को थोड़ा नियंत्रित कर पाएंगे, ऐसा सोचा गया। इस योजना के तहत 1995 से 1997 के बीच येलोस्टोन में 41 भेड़िये छोड़ दिए गए। ये भेड़िये कमाल के शिकारी थे। ये 450 किलो की किसी मादा के बदले 750 किलो के किसी कुपोषित-कमजोर नर एल्क का शिकार करते थे। प्रजनन के मौसम में केवल नरों का शिकार करना है ताकि मादा और बच्चों को जन्म दे सके, गर्भवती मादा का शिकार न किया जाये, ये भेड़ियों को अपनेआप पता था। उनके शिकार से एल्क की जनसँख्या नियंत्रित हुई। किन इलाकों में एल्क चरेंगे ये भी अपनेआप तय हुआ।
आहार काफी था तो भेड़ियों की आबादी अब 300 पर पहुँचने लगी। पर्यावरण पर इसका ये भी असर हुआ कि 1980 और 1990 के जाड़ों में जहाँ सैकड़ों एल्क ठण्ड में मर जाते थे, उनकी ऐसी मौतें भी 2010-2011 आते आते बहुत कम हो गयीं। केवल तेज दौड़ सकने वाले मजबूत पशु ही शिकारी पशुओं से बचे होंगे, इसलिए ऐसा होना ही था। इनसे प्रेरणा लेकर कॉलोराडो, न्यू मेक्सिको, एरिज़ोना इत्यादि क्षेत्रों में पुनः मैक्सिकन वुल्फ नाम की स्थानीय भेड़ियों की प्रजाति को छोड़ने पर विचार किया जा रहा है।
इसकी तुलना करनी हो तो भारत के देवी मंदिरों में एक-एक करके बंद होती बलि प्रथा से कर सकते हैं। ऋषि वशिष्ठ इत्यादि से ज्यादा जानने वाले आजकल बलि के विरुद्ध तर्क ले आते हैं। जब मार्कंडेय-जैमिनी आदि ऋषियों ने देवी को “छगबलितुष्टा” कहा है, तो आप उन ऋषियों से ज्यादा जानते होंगे, तभी तो बलि का विरोध कर रहे हैं न? रक्त देखकर बेहोश हो जाने वाली अगली पीढ़ियाँ बनायेंगे ऐसे में। काफी कुछ ब्रायलर मुर्गियों जैसा, जिनके पैदा होने का एकमात्र उद्देश्य कोई विरोध किये बिना, किसी और का आहार बन जाना होता है। कुछ लोग टूरिज्म का बहाना भी बनाते हैं। पर्यटकों को देखने में बुरा लगेगा, इसलिए बलि मत दो। ऐसे मूर्खों को याद रखना चाहिए कि मंदिर धार्मिक स्थल हैं, पर्यटन स्थल नहीं। अपनी पूजा पद्दतियों को जारी रखने, उनके प्रचार प्रसार की अनुमति हिन्दुओं को भी संविधान देता है।
जिन्हें भारतीय वनों में फिर से चीते लाने पर शाकानाजी आपत्ति थी, करीब-करीब वही सब आपको बलिप्रथा का विरोध करते दिखेंगे। जहाँ देवी आपने सौम्य स्वरुप में हैं, वहाँ जाइए अगर पशु बलि से इतनी ही दिक्कत है तो। क्षीर भवानी जाइए जहाँ दूध का, खीर का प्रसाद होगा। शाकम्भरी देवी के मंदिरों में जाइए जहाँ फल-फूल चढ़ेंगे। देवी के उग्र स्वरूपों के लिए जो बलि उचित है, वो नहीं दे सकते तो उनका आह्वान क्यों करना? दो ही लोगों को भोजन करवाने की क्षमता हो तो दस लोगों को आमंत्रित करके सबको रुष्ट तो नहीं करते न? इन धार्मिक विधियों का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है। बलि से जुड़ा जो दान होता है, उससे सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं, जिन्हें बलि को समाप्त करके आप समाप्त कर रहे हैं। शाकाहार के प्रति नाजियों जैसा दुराग्रह रखने वाले शाकानाजियों के बहकावे में आने से बचिए।
बाकि ऐसी मूर्खता का जो नतीजा निकलना है, उनका उदाहरण आप हैदराबाद के पंडाल में दो बुर्कानशीनों द्वारा देवी की मूर्ती को तोड़ने में, या रांची के मेन रोड पर हनुमान मंदिर में विग्रह को तोड़ देने में देख चुके हैं। मूर्खता जारी रखने पर आगे भी देखते रहेंगे, ऐसा मेरा दृढ मत है।
(भेड़ियों की जानकारी और चित्र नेशनल जियोग्राफिक्स की वेबसाइट से साभार)
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