लेखक
– डॉ. आनंद सिंह राणा, श्रीजानकीरमण महाविद्यालय
‘वीरांगना परम आदरणीय, दुर्गा भाभी’ : तथाकथित सुनहरे इतिहास के पन्नों में लुप्त , एक सुनहरा व्यक्तित्व-: यूँ तो भारतीय इतिहास के पन्नों में,स्वाधीनता की इस लड़ाई और इसमें सक्रियता से भाग लेने वाले अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम दर्ज़ किए गए, लेकिन ऐसे बहुत से महान् सेनानी भी हैं जिन्होंने ना केवल अपना पूरा जीवन इस संघर्ष के नाम किया, बल्कि इस संघर्ष को सफ़ल बनाने में भी अपना अदभुत योगदान दिया और इस संग्राम की अगुवाई की बजाय पर्दे के पीछे रह कर अपने अगुवाओं को आगे बढ़ने और डटे रहने का साहस प्रदान किया। लेकिन दुर्भाग्यवश! इन्हें ना तो हमारे इतिहास के पन्नों पर जगह दी गई और ना ही इनकी शहादत को वो सम्मान मिल सका, जिनके ये हक़दार थे और वे महत्वपूर्ण शख्स धीरे-धीरे हमारे सुनहरे इतिहास की चमक से पीछे अँधेरे में गुम होते जा रहे है। ऐसी ही विभूतियों में से एक हैं-‘वीरांगना दुर्गा भाभी’।
‘दुर्गा भाभी’ का वास्तविक नाम था-दुर्गावती देवी। इनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 में शहजादपुर ग्राम में पण्डित बांके बिहारी के यहां हुआ। दुर्गावती का विवाह 11 वर्ष की अल्पायु में प्रो.भगवती चन्द्र वोहरा के साथ हुआ। दुर्गावती के पिता जहां इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाज़िर थे और उनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊँचे पद पर तैनात थे।
वोहरा क्रन्तिकारी संगठन एच. एस. आर. ए. के प्रचार सचिव थे। दिल्ली के क़ुतुब रोड में स्थित घर में,वोहरा, विमल प्रसाद जैन के साथ बम बनाने का काम करते थे,जिसमें दुर्गा भी उनलोगों की मदद करती। प्रारंभिक दिनों में,दुर्गा भाभी सूचना एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने और बम के सामान को लाने पहुँचाने का भी काम करती थी। 16 नवम्बर,1926 में लाहौर में,नौजवान भारत सभा द्वारा भाषण का आयोजन किया गया,जहां दुर्गावती नौजवान भारत सभा की सक्रिय सदस्य के तौर पर सामने आयी। दुर्गावती अद्भुत योजना-निर्मात्री थी,जिनकी योजना कभी-भी विफ़ल नहीं होती थी।अभी भगवती चरण कलकत्ता में ही थे कि 17 दिसंबर, 1928 को लाला लाजपत राय पर लाठी चलाने वाले अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स की हत्या कर दी गई। बरतानिया हुकूमत ने लाहौर पर तरह-तरह की पाबंदियां थोप दीं। दुर्गा भाभी अपने तीन वर्षीय अबोध पुत्र के साथ घर पर अकेली थीं कि देर रात किसी ने उनके घर की कुंडी हौले से खटखटाई। दरवाजा खोला, तो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु सामने खडे़ थे। उन्हें समझते देर न लगी कि सांडर्स का वध इन्हीं का काम है।
उन्होंने इन लोगों को अपने घर में पनाह दी, पर इतना पर्याप्त न था। उन्हें मालूम था कि जब घर-घर तलाशी ली जा रही हो, तब आज नहीं तो कल पुलिस वहां भी आ धमकने वाली है। भगत सिंह और उनके साथियों के पकड़े जाने का मतलब होता, क्रांति की उफनती धारा का थम जाना। ऊहापोह के उन्हीं लम्हों में वीरांगना दुर्गावती वोहरा ने एक अत्यंत साहसिक निर्णय लिया। वह भगत सिंह की पत्नी का स्वांग धर उन्हें लाहौर से सुरक्षित बाहर निकाल ले गईं। आज के उत्तर-आधुनिक भारत में भी ऐसी कार्रवाई को दुस्साहस कहा जाएगा। उन दिनों का हिन्दुस्तान तो अगणित वर्जनाओं की बंदिशों में कैद था, पर दुर्गावती अपने नाम के अनुरूप नई परंपराएं गढ़ने को ही जन्मी थीं। भगत सिंह अगर उस दौरान जिंदा बच सके, तो उसके पीछे दुर्गावती का दृढ़ निश्चय और असीम साहस था। उनके पतिदेव जो धन गाढ़े समय के लिए उन्हें सौंप गए थे, वह भी क्रांतिकारियों की राह सुगम करने में खर्च हो गया। उन दिनों पांच हजार की रकम बहुत बड़ी राशि मानी जाती थी।
भगवती चरण वोहरा और दुर्गा भाभी का रिश्ता अनूठे विश्वास और साहचर्य का था। इसीलिए उनकी भूमिका सिर्फ क्रांतिकारियों की सहयोगी भर की नहीं थी। दुर्गावती वोहरा को भारत की अग्नि भी कहा जाता है। यह दुर्गा भाभी ही थीं जिन्होंने अपने पति के बम कारखाने पर छापा पड़ने के बाद, क्रांतिकारियों के लिए ‘पोस्ट-बॉक्स’ का काम किया। जुलाई 1929 में, उन्होंने भगत सिंह की तस्वीर के साथ लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व किया और उनकी रिहाई की मांग की। इसके कुछ हफ्ते बाद, 63 दिनों तक भूख हड़ताल करनेवाले जातिंद्र नाथ दास की जेल में ही शहीद हो गए! ये दुर्गा देवी ही थीं, जिन्होंने लाहौर में उनका अंतिम संस्कार करवाया।
भगवती चरण ने उन्हें बाकायदा बंदूक चलाना सिखाया था। 8 अक्तूबर, 1930 को उन्होंने दक्षिण बंबई के लैमिंग्टन रोड पर स्थित पुलिस स्टेशन के आगे एक ब्रिटिश पुलिस सार्जेंट और उसकी पत्नी पर गोली चला दी थी। यह कदम उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को एक दिन पहले सुनाई गई फांसी की सजा के प्रतिकार में उठाया था। अंग्रेजों के लिए यह बडे़ आश्चर्य की बात थी कि कोई महिला इतनी दुस्साहसी कैसे हो सकती है? नतीजतन, सारा अमला उनके पीछे लग गया और वह अंतत: सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर ली गईं। हालांकि, उस गोलीकांड में उनकी भूमिका पर कुछ सवाल उठाए गए, मगर इससे उनकी गाथा पर फर्क क्या पड़ता है? वह अंगरेजों की आंखों में कितना खटकती थीं, इसका खुलासा तत्कालीन इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस एसटी होलिन्स की पुस्तक नो टेन कमांडेंट्स से भी होता है। इस बीच दो साल पहले भगवती चरण वोहरा रावी नदी के तट पर बम बनाते समय हुए विस्फोट में शहीद हो चुके थे। दुर्गा भाभी को उनके आखिरी दर्शन तक नसीब नहीं हुए थे, पर अपने स्वर्गीय पति की प्रेरणा को उन्होंने मरते समय तक संजोए रखा। क्रांतिकारी उन्हें भाभी भी इसीलिए कहते कि वह उनके अग्रज भगवती चरण वोहरा की सहधर्मिणी थीं।इस सबके बाद दुर्गावती एकदम अकेली पड़ गई,लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल लार्ड हैली को मारने की साजिश रच डाली,जो क्रांतिकारियों का बड़ा दुश्मन था।1 अक्टूबर,1931 को बंबई के लेमिंग्टन रोड पर दुर्गावती ने साथियों के साथ मिलकर हैली की गाड़ी को बम से उड़ा दिया, जिसके बाद पूरी ब्रिटिश पुलिस दुर्गावती की तलाश में जुट गई। लेकिन वे दुर्गावती को खोज नहीं पाए, 8 अक्टूबर को उन्होंने दक्षिण बॉम्बे में पुनः लैमिंगटन रोड पर खड़े हुए एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पर हमला किया। यह पहली बार था जब किसी महिला को ‘इस तरह से क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल’ पाया गया था। इसके लिए, उन्हें सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की जेल हुई।
भारत की आजादी में उनका सिर्फ यही योगदान नहीं था। 1939 में, उन्होंने मद्रास में मारिया मोंटेसरी (इटली के प्रसिद्ध शिक्षक) से प्रशिक्षण प्राप्त किया। एक साल बाद, उन्होंने लखनऊ में उत्तर भारत का पहला मोंटेसरी स्कूल खोला। इस स्कूल को उन्होंने पिछड़े वर्ग के पांच छात्रों के साथ शुरू किया था। स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में दुर्गा देवी लखनऊ में गुमनामी की ज़िन्दगी जीती रहीं। 15 अक्टूबर, 1999 को 92 साल की उम्र में वे इस दुनिया को अलविदा कह गयीं। अक्सर यही होता आया है… हमारा इतिहास महिलाओं के बलिदान और उनकी बहादुरी को अक्सर भूल जाता है। बहुत सी ऐसी नायिकाएं हमेशा छिपी ही रह जाती हैं। दुर्गा देवी वोहरा भी उन्हीं नायिकाओं में से एक हैं!
देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि कोटि प्रणाम है! दुर्गावती की मृत्यु हुए यूँ तो कई साल बीत चुके है,लेकिन आज भी उनकी वीरता की कहानी हर हिन्दुस्तानी के ध्यान को आकृष्ट कर,उन्हें गौरवान्वित करती है। दुर्गावती मिसाल हैं, नारी के सशक्त रूप की और सच्चे देश भक्त की। जिनके लिए क्रांति का मतलब सिर्फ सत्ता का तख्ता पलट करना मात्र नहीं था,उनके लिए असल क्रांति का मतलब था,स्वाधीनता के बाद एक सशक्त देश की नींव डालना, एक शिक्षित समाज का निर्माण करना और यही वजह थी कि दुर्गावती ने शुरु से ही गरीब बच्चों को पढ़ाने का नेक काम शुरु किया,जिसे उन्होंने जीवन पर्यन्त कायम रखा। दुर्गावती की यही कार्य-प्रणाली और दूरदृष्टि उनके व्यक्तित्व को महान और अविस्मरणीय बनाती है। पुनः आज उनकी जयंती पर शत् शत् नमन है!