नेहरु ने नहीं बनवाया मियां, ये किस्सा कुछ और है! ये प्राचीन काल, मतलब करीब सवा सौ साल पहले की बात है। उस दौर में भारत में व्यावसायिक तौर पर इस्पात बनना बंद हो चुका था। उससे पहले के जमाने में लोहे को पिघलने, उसमें कुछ और मिलाकर लोहे को जंग रोधी, अधिक मजबूत बनाने की कला थी। जिसे दिमिश्की इस्पात कहते हैं वो प्राचीन काल में, भारत से ही निर्यात होता था, सिर्फ यहीं बन सकता था। फिर कभी इसी लोहे की बनी तलवारें, भाले, दूसरे हथियार किसी तरह विदेशियों तक पहुंचे और भारत वालों ने रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बातों पर ध्यान देने के लिए, अस्त्र-शस्त्र और सुरक्षा आदि पर ध्यान देना बंद कर दिया। नतीजा ये हुआ कि इन्हीं हथियारों के हमले में देश गुलाम बना और अब कथित रूप से स्वतंत्र भले हो, लेकिन स्वतंत्रता का बोध, किसी विदेशी आक्रमणकारी की सभ्यता संस्कृति के बदले, अपने वाले पर गौरव करना हमारी सभ्यता अभी तक नहीं सीख पायी है।
वो दौर 1893 का था और तब भारत के जमशेदजी टाटा भारत में इस्पात बनाने के संयंत्र लगाने के लिए यहाँ वहाँ से मदद जुटाने के प्रयास में थे। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान जापान से शिकागो जाते समय उनकी भेंट एक युवा सन्यासी से हो गयी। शिकागो जा रहे ये सन्यासी थे स्वामी विवेकानंद। दो ऐसे लोगों की भेंट हो जाए और कुछ ऐतिहासिक न रचा जाए, ऐसा कैसे होता? हिन्दू साधुओं का वैज्ञानिक सोच का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। विज्ञान पर आधारित एक विश्वविद्यालय स्तर का शिक्षण संस्थान बनाने जैसी योजना उसी यात्रा में उपजी। बाद में जमशेदजी टाटा ने स्वामी विवेकानंद को पत्र लिखे और ये योजना आगे बढ़ चली। समिति बनी और 31 दिसम्बर 1898 को समिति ने एक ऐसे शिक्षण संस्थान को बनाने की योजना का प्रारूप फिरंगी हुक्मरान (कर्जन) को सौंपा। नॉबल पुरस्कार विजेता सर विलियम रामसे को इसके लिए जगह चुनने कहा गया और उन्होंने बंगलोर को सही जगह बताया।
मैसूर राज्य के महाराज श्री कृष्ण राजा वाडियर ने उस दौर में इस संस्थान को बनाने करीब 371 एकड़ भूमि दान में दी (आज उसकी कीमत 420000 करोड़ आंकी जाती है)। टाटा समूह ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस को बनाने के लिए लगातार कई भवन बनवाए हैं। मैसूर राज्य ने पैसे से भी मदद की थी। हैदराबाद के सातवें निजाम ने भी कुछ पैसे दिए थे। फिरंगी वाइसराय, लार्ड मिन्टो ने संस्थान का संविधान पारित किया और इसे शुरू करने के आदेश पर 27 मई को हस्ताक्षर हुए थे। मैसूर के महाराज ने इसका 1911 में शिलान्यास किया और 24 जुलाई को इसके पहले छात्रों का दाखिला रसायनशास्त्र से जुड़ी विधा में नॉर्मन रुडोल्फ और अल्फ्रेड हे जैसे शिक्षकों के पास हुआ। भारत की स्वतंत्रता के बाद 1958 से यूजीसी के अंतर्गत इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस एक डीम्ड यूनिवर्सिटी है। और इस तरह ये समझा जा सकता है कि विज्ञान का भी अपना एक रोचक सा इतिहास होता है।
Today is the birth anniversary of Maharaja Krishnaraja Wadiyar. The Mysore royal family donated 371 acres and 16 guntas of land well as funds to help set up IISc.
Director Prof G Rangarajan commemorated the occasion by garlanding the Maharaja's statue in the Main building. pic.twitter.com/rdcffuG46G
— IISc Bangalore (@iiscbangalore) June 4, 2022
आगे की पीढ़ियों को जब हम-आप इतिहास के बारे में नहीं बताते तो उसका एक नुकसान ये भी होता है कि बाद में झूठ-मूठ ही कोई राजनैतिक दल सभी अच्छी बातों का श्रेय हड़प लेने की कोशिश करे तो वो कामयाब हो जायेगा। आम जानकारी में ये बातें न हो तो कौन कहेगा कि नहीं तुम्हारे नाना-परनाना ने ये चीजें नहीं बनवाई? कोई कह दे कि धर्म का वैज्ञानिक सिद्धांतों से विरोध होता ही है, तो कौन बताएगा कि स्वामी विवेकानंद का योगदान इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस बनाने में था? इतिहास को उबाऊ-बोझिल विषय बना देने के पीछे एक कारण ये भी है कि कोई आपको आपका इतिहास पढ़ने ही नहीं देना चाहता! इतिहास मजेदार कहानियां भी सुनाता है, ये समझने-समझाने के लिए बिलि ब्रायसन की “ए शोर्ट हिस्ट्री ऑफ़ नियरली एवरीथिंग” जैसी मोटी सी बच्चों के लिए लिखी किताबें रोचक हो सकती हैं।
बाकी के लिए भारत के इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज के इतिहास को देखिये, शायद ऐसी ही और रोचक बातें मालूम पड़ जाएँ!