दिल्ली उच्च न्यायालय ने 3 जुलाई को उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें पुलिस को शिकायतकर्ताओं से आरोपों को साबित करने के लिए जांच के दौरान नार्को टेस्ट, पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग जैसे वैज्ञानिक परीक्षणों से गुजरने की इच्छा के बारे में पूछने का निर्देश देने की मांग की गई थी।
मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की पीठ ने वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका खारिज कर दी।
कोर्ट ने 15 मई को याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया था।
जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान, उच्च न्यायालय ने पहले कहा था कि “हम कानून निर्माता नहीं हैं” और याचिकाकर्ता को अपना मामला योग्यता के आधार पर स्थापित करना होगा।
उपाध्याय ने पुलिस से शिकायतकर्ता से यह पूछने का निर्देश मांगा था कि “क्या वह अपने आरोप को साबित करने के लिए जांच के दौरान नार्को टेस्ट, पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग जैसे वैज्ञानिक परीक्षणों से गुजरने को तैयार है” और प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) में अपना बयान दर्ज करें।
याचिकाकर्ता ने कहा था कि किसी आरोपी के संबंध में भी इसी तरह के निर्देश दिए जाने चाहिए और आरोप पत्र में उसका बयान दर्ज किया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि यह एक निवारक के रूप में काम करेगा और फर्जी मामलों में कमी आएगी।
याचिकाकर्ता ने विधि आयोग को विकसित देशों की सर्वोत्तम प्रथाओं की जांच करने और फर्जी मामलों को नियंत्रित करने और पुलिस जांच के समय और कीमती न्यायिक समय को कम करने के लिए एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने का निर्देश देने की भी मांग की थी।
याचिका में कहा गया था कि इससे जांच और मुकदमे पर खर्च होने वाले सार्वजनिक धन की भी बचत होगी और हजारों निर्दोष नागरिकों के जीवन, स्वतंत्रता, सम्मान और न्याय का अधिकार सुरक्षित होगा जो फर्जी मामलों के कारण जबरदस्त शारीरिक मानसिक आघात और वित्तीय तनाव इत्यादि ।
अब इस मामले पर हमारी टिप्पणी यही है की निजता का अधिकार हर मनुष्य का मौलिक अधिकार है । हर सिक्के के दो पहलु होते हैं
और पहला पहलु यह है की पुलिस जो कोर्ट से मांग रही थी अभी आपने जैसा की मुझे सूना और उनका बहुत सारे तर्क थे की इससे जांच और मुकदमे पर खर्च होने वाले सार्वजनिक धन की भी बचत होगी और हजारों निर्दोष नागरिकों के जीवन, स्वतंत्रता, सम्मान और न्याय का अधिकार सुरक्षित होगा जो फर्जी मामलों के कारण जबरदस्त शारीरिक मानसिक आघात और वित्तीय तनाव इत्यादि। ये तो एक पक्ष है इसका दूसरा पक्ष इससे भयावह हो सकता है आपके अधिकार छीन जायेंगे इसका दुरूपयोग होने की संभावना अधिक है वैसे भी आजकल राहुल बाबा चिलाते रहते डेमोक्रेसी खतरे में हैं । फिर इसको अगर कोर्ट हर झंडी दिखा देती तब तो कांग्रेस पता नही क्या हाय तौबा मचाती और सुनिए इससे आपके निजी सम्बन्ध का भेद आप कब किस्से बात करते है सबकुछ की जानकारी आसानी से पुलिस के हाँथ में जाती और वो इससे उससे जुड़ा होने की बात कह कर या फिर उन्हें ऐसा लगा कह कर आपकी निजी जानकारी निकाल लेगा अब मानशिक स्तर अगर पुलिस वाले का खराब हुआ तो जैसे बिहार में हाल में ही एक लड़का का थूक बेचारा मुह से गुटका थूक रहा था गलती से पुलिस के ऊपर पड़ गया फिर क्या था पुलिस ने बस रुकवाकर लड़के को थूक चटवाया मारा अलग से वो तो स्थानीय एस० पि० ने तवरित कारवाई करते हुए उस पागल अफसर को निलम्बित कर दिया मामला समस्तीपुर बिहार का वैसे इस तरह के मामले पिछले साल तमिलनाडु में देखे गये थे और भी पुलिस का अमानाविये चेहरा सामने आया है फिर ऐसे में इस तरह के कानून अगर पास हुए फिर तो पुलिस घर से उठा लेगी इसलिए कोर्ट का एक दम सही फैसला है वैसे भी क्या आप बस एक्सीडेंट के बाद बस पर चढ़ना छोड़ देते हैं ? नही न ! तो इस तरह के अफसर जिनका दिमागी त्बाजुम ठीक नही होता वो बैन करते हैं सद्युप्योग करवाने की जिम्मेदारी मिली है पुलिस और प्रसाशन को और दुरूपयोग कैसे ना हो इसका भी उन्हें ख्याल रखना है समाज में पुलिस की बड़ी भूमिका है समाज में संतुलन को स्थापित करने की ड्यूटी है मगर कामचोर अफसर नियम ही बदल देना चाहते हैं बहरहाल इसपर फिर कभी …………………..