सन 1920 के दौर में जब बंदूकों की सलामी वाले राजवाड़े होते थे तब झाला वंश के राजपूत तेरह बंदूकों की सलामी वाले धांगध्रा पर शासन करते थे। वो ग्यारह बंदूकों की सलामी वाले वांकानेर और नौ बंदूकों की सलामी वाले लिम्बडी और वढवाण पर भी शासन करते थे। कुछ बिना सलामी वाले रजवाड़े भी उनके शासन में थे। अगर आप राजस्थान के नहीं हैं तो हो सकता है आपने झाला राजपूतों के बारे में ना भी सुना हो। इसकी एक बड़ी वजह इतिहास को लिखने का अंग्रेजों और उनके टुकड़ाखोरों का तरीका भी रहा।
राज्य और इलाके के सही नाम के बदले, वो नाम बिगाड़ने में ज्यादा रूचि रखते थे। वो सिर्फ राजधानी के नाम से इलाकों को पहचानते थे, और यही परंपरा उन्होंने शिक्षा व्यवस्था में भी डाली। इसे समझना है तो जरा सोच के बताइये राम कहाँ के राजा थे ? अयोध्या कहा क्या ! वो तो राम की राजधानी थी ना, राज्य-देश कौन सा था जहाँ के राजा थे, वो पूछा है। राज्य के बदले राजधानी क्या होता है वो समझ लिया तो राम के उच्चारण को रामा, कृष्ण का कृष्णा, गणेश का गनेशा, या ग्रंथों को महाभारता-रामायणा करने में भी देख लीजियेगा।
देश को समेट कर सिर्फ राजधानी कर देने से एक बड़े से इलाके का इतिहास भूल कर सिर्फ छोटी सी राजधानी की बात होती रह जाती है। इतिहास के कई हिस्से लोग भूलने लगते हैं, समय के साथ आक्रमणकारी स्थानीय सभ्यता को हीन साबित करने में कामयाब भी हो जाते हैं। जैसे राजस्थान के इलाकों के लोग बावड़ी और जल संरक्षण के अन्य तरीके भूलने लगे। प्रसिद्ध रानी की वाव भी कई साल बाद खुदाई में मिली। वैसे ही झाला राजपूत भी लिखित इतिहास से गायब तो हुए लेकिन वो कहानियों में बाकी रह गए। युद्ध में किसी राजा का मुकुट उसके किसी सरदार ने पहन कर अपने राजा को बचाया और शत्रुओं को धोखा दिया हो ऐसी कहानी सुनी है क्या ?
ये जो कहानी ज्यादातर लोगों ने सुनी होती है वो झाला मन्ना की कहानी है। झाला मानसिंह (या झाला मन्ना) बड़ी सादड़ी के राजपूत परिवार से थे। कभी महाराणा रायमल ने ये जागीर झाला मन्ना के पूर्वजों – श्री अज्जा और श्री सज्जा को दी थी। हल्दीघाटी की लड़ाई से ठीक पहले गोगुन्दा में महाराणा प्रताप की युद्ध परिषद में (1576) में झाला मन्ना शामिल हुए थे। युद्ध के दौरान जब महाराणा प्रताप ने सलीम (बाद का जहाँगीर) पर आक्रमण किया तो झाला मन्ना उनके करीब ही थे।
चेतक के काफी घायल हो जाने पर जब मुग़ल फ़ौज के कई सिपाहियों ने महाराणा प्रताप के चारों ओर घेरा डालना शुरू किया तो झाला मन्ना आगे बढ़े। उन्होंने महाराणा प्रताप के सर से राज चिन्ह और मुकुट लेकर अपने सर पर धारण कर लिया और महाराणा को युद्ध क्षेत्र से निकल जाने कहा। युक्ति काम कर गई और शत्रुओं ने झाला मन्ना को महाराणा प्रताप समझकर उनपर हमला कर दिया। भीषण युद्ध करते झाला मन्ना वीरगति को प्राप्त हुए।
नहीं, झाला मन्ना कोई अस्सी किलो का भाला नहीं चलाते थे, उनकी तलवार भी पच्चीस किलो की नहीं थी। वीरगति को प्राप्त होने से पहले झाला मन्ना मुग़ल सेना को पूर्व की ओर पीछे धकेल चुके थे। उनकी समझदारी की वजह से महाराणा प्रताप बाद में मेवाड़ को स्वतंत्र करवा पाए। झाला मन्ना स्वामिभक्ति और बलिदान के साथ साथ मुश्किल परिस्थितियों में भी समझदारी ना भूलने के लिए याद किये जाते हैं। उनकी याद में पांच रुपये के पांच लाख स्टैम्प्स हाल में ही जारी किये गए हैं।
हैदराबाद में मुद्रित इन स्टैम्प्स में झाला मन्ना आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा बने रहेंगे।