जूता कितना भी महंगा हो हुजूर, उसे सर पर तो नहीं पहन लेते न? रहता तो पांव में ही है! कुछ ऐसा ही जमीन पर बैठे पंकज कपूर कह रहे होते हैं। सामने जमींदार जामिन मियां का किरदार निभा रहे अरुण बाली हुक्का गुड़गुड़ा रहे होते हैं। जब नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर आने वाले “नीम का पेड़” की याद आती है तो उसका वही पंकज कपूर का किरदार याद आता है। बुधई राम का किरदार निभा रहे पंकज कपूर को किस ज़ात का दिखाया गया है, ये अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। पहले विलायत जाफरी की लिखी कहानी को राही मासूम रज़ा ने बदलकर जब टीवी धारावाहिक की स्क्रिप्ट बनाई, तो कहानी में ज्यादा बदलाव नहीं किये थे।
साहित्य में घुसे जातिवाद की बातें करने वाले आमतौर पर ये कहानी भी याद नहीं दिलाते। विलायत जाफरी और राही मासूम रज़ा की इस कहानी के मुख्य किरदार जामिन मियां और मुस्लिम मियां नाम के दो रिश्तेदारों की आपसी रंजिश की कहानी है। इसमें मुस्लिम मियां की साजिशों में फंसकर दूसरे जमींदार को एक क़त्ल के जुर्म में सजा हो जाती है। बुधई राम इसी जामिन मियां के वफादार खादिम थे। अपने बेटे, सुखी राम के जन्म पर बुधई राम ने एक नीम का पेड़ लगाया था, जिसके नाम पर कहानी और धारावाहिक का नाम पड़ा। पेड़ और बच्चे के बड़े होने की कहानी साथ-साथ चलती रहती है, इसलिए नीम का पेड़।
पूरे 58 एपिसोड राही मासूम रज़ा लिख नहीं पाए थे। उनकी 26 लिखने में ही मौत हो गयी थी। कहानी के बुधई राम का एक ही सपना था कि उसका बेटा किसी तरह पढ़-लिख जाये। धारावाहिक की कहनी आजाद होने से थोड़े पहले के भारत में शुरू होती है और आजाद भारत में ख़त्म होती है। बुधई राम अपने बेटे सुखी राम को पढ़ाने-लिखाने में कामयाब भी होते हैं। बदले दौर में बुधई राम का बेटा सांसद बन जाता है। जेल चले गए जमींदार साहब का बेटा सुखी राम का खासमखास गुर्गा सा होता है। भले से बुधई के बेटे सुखी राम को बदलकर भ्रष्टाचारी-अपराधी होते देखकर आप दुखी भी हो सकते हैं।
कहानी में दूसरी चीजें भी देखी जा सकती हैं। जिस दौर के बारे में लिखा गया है, और जिस दौर में लिखा गया, उस वक्त तक भारत बदलने लगा था। आम आदमी भले “नीम का पेड़” लगा रहा हो, लेकिन जमीन से कटी अफसरशाही और विधायिका नीम के पेड़ों में कोई रूचि नहीं लेती थी। आज कहीं जो आपको सरकारी गुलमोहर और यूक्लिप्टस के पेड़ दिखते हैं, वो उसी दौर की सरकारी मेहेरबानी है। भारत के पर्यावरण के अनुकूल जो नीम जैसे पेड़ थे, उन्हें भुलाकर युक्लिप्टस जैसे ज्यादा पानी सोखने वाले, या गुलमोहर जैसे बेकार पेड़ जो छाया-लकड़ी, किसी काम के न हों, उन्हें लगा दिया गया। शायद सरकारी खर्चे पर साहित्यकार भी पलते थी तो उनकी कविता-कहानियों, साहित्य में भी गुलमोहर का ही यशोगान हुआ।
साल में कभी दो महीने दिखता कितना सुन्दर है, इसके बदले उपयोगिता क्या है, इसपर ध्यान देना काफी बाद में शुरू हुआ और अब नीम को थोड़ा बढ़ावा मिलने लगा है। ये अलग बात है कि इन पिछले पचास वर्षों में जो नुकसान हो गया, उसकी भरपाई में ही कितनी मेहनत लगेगी, ये किसी सर्वेक्षण वगैरह में जोड़ा नहीं गया। नीम का पेड़ से एक और दृश्य जो याद आता है उसमें जमींदार मियां लखनऊ जाने के बारे में बुधई से पूछ रहे होते हैं। बुधई जवाब देता है, “नखलऊ तो कभी गए नहीं हजूर”! उसके लखनऊ को नखलऊ कहना आज के अख़बारों में आई एक खबर से याद आ गया।
विरोधी पुलिस के काम करने के तरीकों पर सवाल उठाते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था तो सुधरी है। इसके साथ ही कुछ समय पहले वहाँ फिल्म सिटी बनाने की बात शुरू हो चुकी है। अख़बारों की मानें तो बेरोजगारी की दर यूपी में 4.4% से घटकर 2.9% पर आ गयी है। दिल्ली में ये 11.2% और पंजाब में 7.2% है। इस गति से तो जल्दी ही दिल्ली-पंजाब कमाने जाने वाले मजदूर जल्दी ही नखलऊ का रुख करने लगेंगे! दिल्ली-पंजाब के हाल ही के हिन्दू विरोधी दंगों के बाद अब गरीब मजदूर को यूपी अधिक सुरक्षित भी लगता होगा। नयी पीढ़ी के लोगों को “अबे बिहारी” कहकर जैसे दिल्ली-पंजाब (और दूसरे कई राज्यों) में दुत्कारा जाता है, वो भी कुछ ख़ास पसंद तो नहीं ही होगा।
बदलावों का तो ऐसा है कि किसी दौर का पलायन कलकत्ता-रंगून से बदलकर बम्बई की ओर हुआ था, फिर मुंबई की मिलें बंद हुई तो दिल्ली-पंजाब हुआ। अभी गुजरात की तरफ है और दूसरा निशाना यूपी हो जाये तो आश्चर्य नहीं होगा। बाकी बिहार से पलायन का जो कड़वा सच है वो बदलेगा या नहीं, पता नहीं!
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