मुंबई 29 जुलाई कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन संकट के दौर में ओटीटी प्लेटफॉर्म फनफ्लिक्‍स पर रिलीज हुई हिंदी फिल्म “लाइफ” में फिल्‍म के कहानी लेखक और निर्देशक आशुतोष सिन्हा ने एक अच्छे एवं सामयिक विषय को चुनते हुए प्रभावी निर्देशन के साथ फिल्म के हर पहलू को स्‍क्रीन पर जीवंत किया है।
कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन संकट के दौर में इस फिल्म के जरिये कहानी लेखक और निर्देशक आशुतोष सिन्हा ने साबित कर दिया कि वह समयानुकूल विषय को चुनने के साथ ही उसे प्रभावी ढंग से पेश भी करने का हुनर रखते हैं। फिल्म यूं तो महज एक साधारण से पौधे के इर्द-गिर्द घूमती है, लेकिन उसके जरिये यह देश-काल के कई कड़वी सच्चाई से दर्शकों को रूबरू कराती है।

एक फेयरवेल समारोह में एक युवक को आम का पौधा मिलता है. लीड रोल कर रहे कृष्णा भट्ट के आम के पौधे को रोपने के प्रयास करने के जरिये समाज में व्याप्त कई विसंगतियों एवं कमियों को बखूबी सामने लाया गया है। व्यंग्य के अंदाज में फिल्म  संदेश देती है कि आज के जमाने में अपार्टमेंट कल्चर के जरिए जिस कंक्रीट के जंगल को हम बढ़ा रहे, उससे कालांतार में स्वच्छ हवा के लिए हम तरसते रह जाएंगे। कृष्णा भट्ट को उस आम के पौधे को लगाने के लिए कहीं जगह नहीं मिलती। ऐसे में कृष्णा को भी गांव याद आता है और अंतत: उन्‍हें उस आम के पौधे को जमीन में लगाने के लिए गांव लौटने को मजबूर होना पड़ा। ठीक वैसे ही जैसे कोरोना की मार पड़ने पर शहरों में रह रहे प्रवासी कामगारों ने अपने गांवों की ओर रुख किया। कृष्णा चार साल के बाद अपनी पत्नी के साथ गांव आते हैं. वहां पहुंचने पर इस लंबी जुदाई को लेकर उनके पिताजी की कसक और  दो पीढ़ियों की सोच में आ चुका अंतर फिल्‍म में बारीकी से दिखाया गया है। साथ ही संदेश दिया गया है कि शहर जाने पर भी हमें अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहिए. यदि माता-पिता गांव में रह रहे हैं, तो आना-जाना करते रहिए. उनसे संवाद बनाए रखना चाहिए, क्‍योंकि बुजुर्गों को नाराज करना किसी के भी हित में नहीं.
कहानी आगे बढ़ती है. कृष्णा का छोटा भाई उन्हें आम का पौधा लगाने के लिए जमीन दिखाने ले जाता है. काफी पड़ताल के बाद जमीन पसंद की जाती है. खुशी के माहौल में दोनों भाई पौधा को ले जाने के लिए घर आते हैं, तो पता चलता है कि आम का पौधा बकरी चर गई. अब उसमें कुछ टहनियां ही बची हैं. यह देख कृष्णा कुछ देर के लिए अपनी सूझबूझ खो देते हैं और मूर्छित होकर गिर पड़ते हैं. यहां फिल्‍म की पूरी कहानी का पूरा खुलासा किए बिना इतना ही बताना उचित होगा कि फिल्म का समापन हरे भरे बगीचे में खुशी के माहौल में बुजुर्ग हो चुके कृष्णा और उनकी पत्नी के आनंद मनाते हुए होता है और तमाम घटनात्‍मक उतार-चढ़ावों से गुज़रती हुई फिल्‍म आखिर तक दर्शकों को अपने साथ बांधे रखती है. साथ ही यह संदेश और प्रेरणा भी देती है कि पर्यावरण संरक्षण के बिना जीवन बेमानी है और यदि वास्तव में हमें साफ हवा-पानी, ऑक्सीजन चाहिए, तो पौधों से नाता जोड़कर रखना होगा, जड़ों की ओर लौटना होगा।


गौरतलब है कि फिल्म के लेखक निर्देशक आशुतोष सिन्हा “लापतागंज” सीरियल के जरिये चर्चाओं में आए थे, जबकि मुख्‍य किरदार निभा रहे कृष्णा भट्ट भी फिल्म और सीरियल का जाना-माना नाम हैं। फिल्म में बैकग्राउंड म्यूजिक वेद मिश्रा ने दिया है। संपादन नीरज सिन्हा का है। कम संसाधनों में बनी यह फिल्म इस मायने में भी खास है कि कैसे कम बजट में भी कथा-वस्‍तु से समझौता किए बिना एक प्रभावशाली फिल्‍म बनाई जा सकती है।

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