भारत के पुराने नक्शों में कई भाषा के आधार पर बने नक़्शे भी दिखते हैं। इनमें एक ख़ास बात ये नजर आती है कि आज का जो भारत का केन्द्रीय हिस्सा होता है, जिसमें मध्यप्रदेश पूरा, महाराष्ट्र-तेलंगाना के इलाके, कुछ हिस्सा उत्तर प्रदेश का भी और कई बार ओड़िसा तक एक गोंड भाषा का इलाका दिखाया जाता है। मुगलों से लेकर अंग्रेजों के दौर तक लगातार ये समुदाय स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत भी नजर आ जाते हैं।
आज के दौर के इतिहास में जो अटपटा सा मुग़ल शासन लगता है, उस दौर में भी देखेंगे तो नजर आएगा कि इन सभी इलाकों पर लगातार इस्लामिक आक्रमण जारी रहे। सवाल जवाब ना करने की जो शिक्षा स्कूल में दी जाती है उसके वाबजूद ये बार बार दिमाग में आता है कि अगर रानी दुर्गावती के दौर में इन इलाकों पर मुग़ल शासन था तो फिर औरंगज़ेब दक्कन पर चढ़ाई क्यों कर रहा था ? हर दस बीस साल में ये फिर विद्रोह कर के स्वतंत्र हो जाते थे क्या ?
असल में स्त्रियों के दबे-कुचले होने और मुग़ल बादशाहों के दयावान होने की कहानियों को इतिहास में स्थापित करने के लिए आम तौर पर पाठ्यक्रम से उन कहानियों को हटा दिया जाता है जो दिल्ली से दूर थीं। ऐसी ही कहानियों में से एक रानी दुर्गावती की कहानी भी है। गोंड समुदाय के लिए देवितुल्य पूजित इस रानी की कहनी भी इतिहास से गायब की जाती है। अकबर ने अपनी करीब 20-21 जीतों में हारने वालों के साथ क्या किया था इसे गायब करके उसे धर्मनिरपेक्ष दिखाने के लिए भी इस कहानी को गायब करना जरूरी होता है।
अकबर की निगाह जब रानी दुर्गावती के छोटे से राज्य पर पड़ी तो वो करीब 22 वर्ष का रहा होगा। अपने पति दलपत शाह मडावी की मृत्यु के उपरांत तीन वर्ष के पुत्र की ये माता उस समय गढ़मंडला का शासन संभाल रही थीं। अकबर करीब चालीस की वय की रानी को अपने हरम में, और गढ़मंडला को अपनी हुकूमत में मिलाना चाहता था। गढ़मंडला के पास का ही एक और मुस्लिम शासक बाजबहादुर को भी पड़ोस में एक रानी का शासन मंजूर नहीं था। कोई स्त्री भला शासन कैसे संभाल सकती है ?
इन कारणों से बाजबहादुर अक्सर गढ़मंडला पर आक्रमण करता रहता लेकिन वो कभी कामयाब नहीं हो पाया था। हर बार उसे हारकर लौटना पड़ता। तुलनात्मक रूप से अकबर के पास फौज़ की गिनती बहुत ज्यादा थी। उसने विवाद शुरू करने के लिए रानी से उनका विश्वस्त वजीर और उनका हाथी मांग लिया। मांगें ठुकराए जाने पर अकबर के रिश्तेदार आसफ खान के नेतृत्व में गढ़मंडला पर हमला हुआ। रानी खुद भी लड़ सकती होगी ये मुग़ल सिपाहियों को शायद पता नहीं था। पहले हमले में उन्हें हारकर लौटना पड़ा।
दूसरी बार फिर और फौजें जमा कर के आसफ खान के ही नेतृत्व में आक्रमण हुआ। पहले दिन तो 3000 मुग़ल सैनिकों की भी क्षति हुई लेकिन दुसरे दिन की लड़ाई लड़ने के लायक गढ़मंडला की शक्ति नहीं बची थी। 24 जून 1564 को जबलपुर के पास नरेई नाले के किनारे हुए इस युद्ध में रानी को पहले बांह और फिर आँख और गले में तीर लगे। जी हाँ, इस्लामिक आक्रमण का ख़ास तरीका, जिसमें कुछ फ़िदायीन सीधा विपक्ष के नेतृत्व की हत्या करने निकलते हैं वही इसमें भी इस्तेमाल हुआ था। घायल रानी ने अपने पुत्र को सुरक्षित स्थान पर भेजा और अपने मंत्री को अपना सर काट देने कहा।
जब वजीर आधारसिंह इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। उन्होंने मृत्यु से पहले गढ़मंडला पर पंद्रह वर्ष शासन किया था। जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां गोण्ड जनजाति के लोग जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर मे स्थित रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय भी रानी के नाम पर है।
खजुराहो के आस पास के कई मंदिर चंदेल राजवंश के बनवाये हुए हैं। रानी दुर्गावती का कला प्रेम उन मंदिरों और कालिंजर दुर्ग की कलाकृतियों में आज भी जीवित है। उनके मुग़ल सेना से युद्ध के बारे में कहा जा सकता है कि उसमें आम हिन्दुओं की सभी मूर्खताएं नजर आती हैं। उनकी सेना ने जब पहले दिन का युद्ध जीत लिया था, तो वो रात में ही आक्रमण करना चाहती थीं। लेकिन जैसा कि सर्वविदित है, नैतिकता का सारा ठेका तो हिन्दुओं के पास ही है, इसलिए उनके सिपहसलार रात में हमला करने से हिचके। अगली सुबह तक जब रानी अपने हाथी पर सवार लड़ने आई तो आसफ खान ने रानी दुर्गावती की सेना को कुचलने के लिए बड़ी तोपें मंगवा ली थी।
महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। बांदा जिले के कालिंजर किले में 1524 ईसवी की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। रानी दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी। गोण्डवाना साम्राज्य के राजा संग्राम शाह मडावी ने अपने पुत्र दलपत शाह मडावी से विवाह करके, उन्हें अपनी पुत्रवधू बनाया था। कैलेंडर के हिसाब से 1524 की दुर्गाष्टमी 5 अक्टूबर को हुई होगी। विदेशी आक्रमणकारियों की काम-पिपासा से लड़ने वाली स्त्री-शक्ति को नमन ! उनके पंद्रह साल के शासन को नमन करने आज भी रानी की समाधी पर बरेला, मंडला रोड पर मेला लगा होगा तो सोचा याद दिला दें।
(नरेई के युद्ध के लिए तैयार होती रानी दुर्गावती की ये पेंटिंग ब्योहार राममनोहर सिन्हा की है, जो जबलपुर के शहीद स्मारक में लगी हुई है)

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