मेरे हिसाब से आप प्रेमी युगलों की हत्या के समर्थक हैं! क्या हुआ, भावना आहत हो गयी इस आरोप से? ठीक है फिर आगे बात करते हैं और बताते हैं कि हम ऐसा क्यों मानते हैं। कुछ ही दिन पहले आप यूनिफार्म सिविल कोड (यूसीसी) का समर्थन कर रहे थे – एक देश में एक विधान। इसका मतलब है कि आप एक पुरुष को चार-चार औरतों से शादी करने के हिमायती तो नहीं ही हैं। इसके अलावा अगर पूछा जाए कि क्या चचेरे-ममेरे भाई-बहनों की आपस में शादी के समर्थक हैं? तो इसका जवाब भी आप ना में ही देंगे! इसी को थोड़ा और आगे बढ़ाया जाए तो एक ही गोत्र का अर्थ होता है कि कई पीढ़ियों पहले वो एक ही परिवार के थे। ऐसे ही एक ही गाँव में रहने वाले एक ही जाति के परिवार भी कुछ आठ-दस पीढ़ियों पहले एक ही परिवार रहे होंगे। तो जो खाप पंचायतें एक ही गाँव में और समगोत्रिय विवाह का विरोध करती हैं आप उसके समर्थक हुए। वो ऐसी शादी करने वालों को कई बार फांसी पर टांग चुके हैं, आप उन प्रेमी-युगलों को फांसी पर टांगने वाले के समर्थक भी हो गए। हाँ सजा आपके हिसाब से फांसी से थोड़ी-बहुत कम या ज्यादा हो सकती है, लेकिन समर्थक तो हैं ही न आप?
अगर आप कहीं ऐसे किसी समुदाय विशेष में जन्मे होते, जहाँ चचेरे-फुफेरे या ममेरे भाई-बहनों में शादी चलती है तो फिर आपको इससे दिक्कत नहीं होती। फिर आप स्त्रियों के अपने ही परिवार में, किसी भी अन्य पुरुष के सामने पर्दा करने के भी समर्थक होते, ऐसा भी हो सकता है। तब ये भी संभव था कि आप “कीमती चीजें ढककर रखी जाती हैं” जैसे तर्कों से बुर्के-पर्दे-नकाब-हिजाब का समर्थन करते भी दिखते। अब अगर आप यहाँ तक पढ़ चुके तो आप मोटे तौर पर “सोशल कंस्ट्रक्ट” का तर्क समझ चुके हैं। “सोशल कंस्ट्रक्ट” करीब सोलहवीं शताब्दी में मिशेल डी मोंटेन के तर्कों से जन्मा माना जा सकता है जिसमें कहा जाता था कि हम जिसकी विवेचना कर रहे हैं, उससे अधिक हमें अपनी विवेचना की ही विवेचना करने की आवश्यकता है। इसी तर्क को फेड्रिक नीत्से ने आगे बढ़ाते हुए 1886-87 में लिखा “तथ्यों का अस्तित्व ही नहीं होता, केवल विवेचना का अस्तित्व है”। आज जो अक्सर आप “पोस्ट-मॉडर्न” शब्द सुनते हैं, नीत्से उसके शुरूआती विचारकों में से ही नहीं थे, उसके जनक ही फेड्रिक नीत्से थे, ऐसा कहा जा सकता है। पोस्ट-मॉडर्न या उत्तर आधुनिक विचारकों में फेड्रिक नीत्से के अलावा आपने मिशेल फोकू और जक्वेस डेरिडा का नाम भी सुना होगा।
जिस सोशल कंस्ट्रक्ट या सामाजिक संरचना से हमने बात शुरू की थी, उसी को और आगे बढ़ाएं तो आपको और भी उदाहरण याद आ जायेंगे। जैसे विदेशों में (विशेषकर अमेरिका) पले-बढ़े अपने ही परिवार के बच्चों को आपने भारत आकर परेशान होते देखा है। उनकी समस्या ये होती है कि आप सड़क पर गाड़ी उल्टी तरफ से क्यों चला रहे हैं? ये बच्चों के हिसाब से अशोभनीय व्यवहार है। वो नहीं जानते लेकिन आप बड़े हैं और हिन्दू भी इसलिए एक अंतर को आप आसानी से स्वीकार कर लेते हैं। आपको पता है कि विदेशों में गाड़ी दाहिनी ओर से सड़क पर चलाई जाती है। हिन्दू होने के कारण दो समुदायों में अगर व्यवहार में अंतर है तो उसे स्वीकारना आपके लिए आसान है, इसलिए बिना सोचे ही आपसे अपने आप ही ये हो जाता है। इतनी देर सोशल कंस्ट्रक्ट या सामाजिक संरचना के बारे बातें करते हुए आपको ये भी याद आने लगा होगा कि आपने ये फेड्रिक नीत्से, जक्वेस डेरिडा और मिशेल फोकू जैसे नाम कहाँ पढ़े हैं। जो स्वयं को कभी वामपंथी कहते थे, वो काफी पहले समझने लगे थे कि वामपंथ एक राजनैतिक-आर्थिक प्रणाली के तौर पर कई देशों में असफल सिद्ध हो चुका है। वेशभूषा बदलने में माहिर इन गिरोहों ने पहले प्रगतिशीलता और फिर उत्तर-आधुनिकतावाद का नकाब पहन लिया है।
सोशल कंस्ट्रक्ट को बच्चों के उदाहरण से भी समझ सकते हैं। किसी अबोध बालक या बालिका को ऊँगली थमा दें तो वो क्या करेगी? वो सीधा ऊँगली को अपने हाथों से पकड़कर, अपने मुंह की तरफ ले जाने की कोशिश करती है। उसके लिए माता के स्तन, बोतल की निप्पल और ऊँगली में कोई विशेष अंतर नहीं। सब भोज्य पदार्थ ही हैं। बाद में जब बच्चे घुटनों पर चलने लगते हैं, इधर उधर से दूसरी चीजें, मिट्टी इत्यादि उठाने में समर्थ हो जाते हैं, तब उन्हें सिखाया जाता है – छी-छी इसे नहीं खाते, गन्दी बात! और इस तरह बच्चे धीरे-धीरे समाज से सीखते हैं कि क्या खाना है और क्या नहीं। अबोध बालक तो खरगोश या किसी जंतु और फल-गेंद, सबकुछ चख कर देख लेना चाहते हैं। समाज उन्हें सिखाता है क्या खाना है और क्या नहीं। जैनी के लिए कई चीजें मांसाहारी हो जाएँगी, किसी समुदाय के लिए कुत्ता खाना बुरा होगा तो किसी समाज में घोड़ा-बिल्ली खा जाना। ऐसे ही मांसाहारी भी हों तो किसी के लिए गाय अभक्ष्य होगी, और किसी के लिए सूअर! कोई ऐसा भी होता है जिसके लिए पोर्क-बीफ दोनों चलता है। शाकाहार या मांसाहार भी एक सोशल कंस्ट्रक्ट है। आप शाकाहार के जरिये केवल ये दर्शाने का प्रयास करते हैं कि आप अन्य लोगों से अधिक सभ्य हैं। अपने अहंकार के पोषण के लिए दूसरों को ओछा और स्वयं को सुसंस्कृत दिखाने के प्रयास से अधिक ये कुछ भी नहीं। शाकाहार में ही थोड़ा और अहंकारी हो जाइए तो आप स्वयं को “विगन” (vegan) घोषित करने लगते हैं। अहंकार के इस स्तर पर आपके लिए शाकाहारी भी ओछा हो जाता है क्योंकि वो दूध और उससे बने उत्पाद खाता है और आप बछड़ों से उसका आहार नहीं छीनते!
इसके अलावा शाकाहार थोपे जाने से जो नुकसान संभव हैं, उन्हें देखा जाए तो भारत में निषाद समुदाय की आजीविका मछली पकड़ने, उसे बेचने पर काफी हद तक निर्भर करती है। सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों से आने वाले खटीक समुदाय, मुख्य रूप से मांस का व्यापार करते हैं। मुहम्मडेनों में भी ज़ात होती है और पिछड़े माने जाने वाले कुरैशी लोग वहाँ मांस के व्यापार में लगे हुए दिखेंगे। इसकी तुलना में शाकाहार को दुराग्रह के जरिये थोपने पर उतारू लोग आपको सामाजिक-आर्थिक रूप से अग्रिम पंक्ति के समुदायों से आने वाले आसानी से दिख जायेंगे। ऐसे में कैसे मान लिया जाए कि शाकाहार का दुराग्रह जातिवाद से जुड़ा मुद्दा नहीं है? इसके आगे हमलोग ये भी पढ़ते रहे हैं कि भारत विविधताओं का देश है। खान-पान, पहनावा, बोली, धर्म, रीति-रिवाज, सबमें विभिन्नता होती है और फिर भी ये एक देश है। इस विभिन्नता की बाद भी इसका एक देश बनना, और बने रहना, पश्चिमी विचारकों के लिए एक बड़ा जटिल प्रश्न रहा है। उनकी नेशन-स्टेट की जो थ्योरी थी, उसपर इतनी विभिन्नताओं के साथ एक देश बन ही नहीं सकता। भाषा, धर्म इत्यादि किसी बात का समान होना आवश्यक था। सभी का भोजन एक जैसा – शाकाहारी ही हो, ये जिद पकड़े बैठे लोग आज खान-पान की विभिन्नता समाप्त करने निकले लोग हैं। कल को ये सभी को एक जैसे कपड़े या काली तिरपाल ओढ़कर, किसी बोरी में घुसकर घर से निकलने नहीं कहेंगे, इसकी क्या गारंटी है? एक विभिन्नता समाप्त होते ही ये दूसरी को, और इस तरह आगे भारत की पहचान – उसकी विभिन्नता को ही समाप्त कर देंगे।
ध्यान रखने योग्य बस ये है कि पोस्ट ट्रुथ वो विधा है जो स्पष्ट वामपंथ के असफल होने के बाद आई है। जिसे अज लेफ्ट-लिबरल या केवल लिबरल सोच कहते हैं, उसका केवल एक हिस्सा है सोशल कंस्ट्रक्ट। इसके अलावा और भी डीकंस्ट्रक्शन जैसे तर्क के तरीके इसमें इस्तेमाल होते हैं, प्रयोग में लाये जा सकते हैं। शाकाहार बनाम मांसाहार की बहसों में ये कहना कि तुम भी पेड़-पौधे खाते हो, जिनमें जीवन होता है, एक कमजोर लेकिन अक्सर प्रयुक्त होने वाला तर्क होता है। शाकाहार का दुराग्रह एक सोशल कंस्ट्रक्ट है, विभिन्नता को समाप्त करने का भारत के विचार के ही विरुद्ध प्रयास है, जातिवादी भी है। बाकी एक कहावत सी चलती है कि जब शत्रु अपनी तलवार पर धार चढ़ा रहा होता है तो हिन्दू अपने तर्कों को तेज कर रहा होता है। आपके तर्कों की धार कितनी तेज है इसकी जांच करनी हो तो इन्हें सोशल कंस्ट्रक्ट के इस तर्क पर प्रयास कीजिये। विचारक सिर्फ विदेशियों की फेंकी हुई बोटियों पर पलने वाले तो होते नहीं, इधर भी होंगे ही न?