एक शिक्षा व्यवस्था के बिगड़ते ही राज्य के संसाधनों पर कई कोणों से असर होने लगता है। पहला असर सीधा पलायन है। पिछले डेढ़-दो दशक से बारहवीं के बाद प्रतिभाशाली बच्चे ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए दिल्ली और दूसरे शहरों के कॉलेज और यूनिवर्सिटी को बेहतर विकल्प के तौर पर देखने लगे हैं। कारण स्पष्ट हैं- सेशन की लेट-लतीफ़ी, नियमित क्लासेज़ का न होना और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव। इंजीनियरिंग, मेडिकल या यूपीएससी की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवा-युवतियों के साथ राजस्व का अवसर भी बाहर जाता रहा। कोटा, प्रयागराज, नॉएडा जैसे नगर विकसित नहीं हुए, तो वो नुकसान अलग।
उच्च शिक्षा में सुधार की पहल
दशकों से समस्याग्रस्त उच्च शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए महामहिम राज्यपाल राजेन्द्र वी आर्लेकर ने कुछ गंभीर प्रयास किए। पहले तो नई शिक्षा नीति 2020 के तहत राज्य में 4 वर्षीय स्नातक कोर्स को लागू किया गया। उन्होंने राज्य भर से 150 शिक्षाविदों को जुटाकर एक पाठ्यक्रम तैयार करवा लिया है। विश्वविद्यालयों की सीनेट बैठकें बंद हो चुकी व्यवस्था थी, उसे फिर से शुरू करके जल्दी फैसले लेना सुनिश्चित किया गया। वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है कि राज्यपाल सीनेट की सभी बैठकों में स्वयं शामिल हुए हैं। महामहिम की इस पहल की सराहना करते हुए विधानमंडल द्वारा अभिनन्दन प्रस्ताव भी पारित किया गया। भारतीय ज्ञान परंपरा एक नया विषय था जो नेट (यूजीसी) की परीक्षाओं में जोड़ा गया था, उसके विभिन्न विषयों पर सेमिनार आदि का नियमित रूप से आयोजन किया जा रहा है। बतौर चांसलर, प्रोफेसर से लेकर छात्र-छात्राओं एवं विश्वविद्यालीय कर्मचारियों के लिए उनकी उपलब्धता ने विश्वास का थोडा संचार तो किया है।
शिक्षा विभाग का तानाशाही रवैया
इसकी तुलना अगर बिहार के राजनीतिज्ञों से कर दी जाए तो सर पीट लेने का मन कर सकता है। थोड़े समय पहले तक एक चंद्रशेखर यादव शिक्षा मंत्री बने बैठे थे। अभी के शिक्षा मंत्री बता चुके हैं कि वो दो-दो महीने तक कार्यालय ही नहीं आते थे। हाँ उनके अनर्गल बयान जरूर अख़बारों की बिक्री बढ़ाते रहे। राजभवन के प्रयासों को राज्य सरकार का कितना सहयोग मिला इसका अनुमान इस बात से लगता है कि शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के के पाठक ने शुरूआत में 4 वर्षीय स्नातक कोर्स का विरोध किया था। राजभवन ने छात्र हित में जब इसे लागू करने पर जोर दिया तब कहीं जाकर नौकरशाही को राज़ी होना पड़ा। शिक्षा विभाग इसी साल फ़रवरी और मार्च में विश्वविद्यालयों का बैंक अकाउंट फ्रीज़ करने और शैक्षणिक/ग़ैर-शैक्षणिक पदाधिकारियों व कर्मचारियों का महीनों का वेतन रोकने जैसे फरमान दे चुका है। कुलपतियों तक का वेतन रोकने का आदेश भी जारी किया गया। पटना हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ये तुगलकी फ़ैसले वापस लिए गए।
बाद में अदालत ने बैठकें करके सभी मुद्दों को सुलझाने का आदेश दिया लेकिन इस वजह से दो महीने से ज़्यादा समय के लिए शैक्षणिक तथा अन्य विश्वविद्यालीय गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित हुईं। अदालती-आदेश पर राजभवन द्वारा तीन-तीन बैठकें आहुत की गईं जिनमें अदालती मामलों के निपटारे, वार्षिक बजट, परीक्षाओं की स्थिति, विश्वविद्यालयों के पास उपलब्ध संसाधनों, इत्यादि पर चर्चा होनी थी। तीनों बैठकों से अपर मुख्य सचिव (के के पाठक) नदारद रहे। राजनीतिक नेतृत्व के साथ-साथ अदालत की बातें नौकरशाही कितना सुनती है, ये इससे पता चल जाता है। विधानसभा में मुख्यमंत्री शिक्षा व्यवस्था को लेकर कुछ घोषणा करते हैं, लेकिन शिक्षा विभाग उसका पालन नहीं करता। यह वाक़ई दिलचस्प है कि बिहार में बीते 4 महीने में चार शिक्षा मंत्री बदले गए हैं, लेकिन के के पाठक अंगद के पाँव की तरह जमे हुए हैं। उन्हें किसका मौन समर्थन मिला हुआ है, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं।
शिक्षक संगठन अकादमिक कैलेंडर को दुरुस्त करने, परीक्षाओं को समय से करवाने जैसी मांगें उठाते रहे हैं। ऐसे सुधार के प्रयासों को बार-बार ब्रेक लग रहा है जिसका सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा ग़रीब और वंचित वर्ग के उन छात्र-छात्राओं को भुगतना पड़ रहा है, जो आर्थिक-सामाजिक कारणों से बिहार के बाहर शिक्षा लेने में सक्षम नहीं हैं। कहने को तो पूर्व शिक्षा मंत्री विजय कुमार चौधरी कह चुके हैं कि जो मुद्दे उभरते हैं उन्हें बातचीत से सुलझा लिया जायेगा और छात्र-छात्राओं का नुकसान नहीं होने दिया जायेगा मगर वास्तविकता कुछ और ही है। जब 9 फरवरी को शिक्षा विभाग ने उप-कुलपतियों की बैठक बुलाई थी, तो उसमें उप-कुलपति नहीं आए थे। अब ऐसी ही बैठक में के.के. पाठक ने शिरकत नहीं की। महामहिम राज्यपाल जनवरी में ही कह चुके हैं कि शिक्षा विभाग अगर राजभवन के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप न करे तो बेहतर होगा। क़रीब छह महीने से चल रही इस खींच-तान का पाठ्यक्रम के पूरे होने से लेकर परीक्षाओं के समय पर आयोजित होने तक पर असर होगा जिसका दुष्प्रभाव विभाग अथवा शिक्षकों की बज़ाए छात्र-छात्राओं पर ही पड़ेगा।