बहस का मुद्दा कुछ और था और हमारा ध्यान कहीं और था। आप इसे क्षेत्रवाद कह सकते हैं, लेकिन इससे हमें संस्कृत का “देहलीदीपक न्याय” याद आ रहा होता है। बहस का मुद्दा था एक स्टेशन का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर रख देना। हमारा ध्यान इस बात पर था कि उस जगह के नाम में सराय था। कभी वहाँ असम पर असफल हमला करने जाती मुगल फौजें रुकी होंगी। कई पुरानी जगहें जहाँ व्यापारी/यात्री ठहरते थे, वहाँ किसी प्रमुख व्यक्ति की सराय होती थी। आज की तरह होटल वगैरह तो थे नहीं। उसी सराय के नाम पर धीरे-धीरे बाजार-मंडी विकसित हुई होगी और फिर जगह का नाम ही उस सराय के नाम पर पड़ गया। बिहार में ऐसी कई जगहें हैं। बेगुसराय जिला ही है और कुछ कुख्यात लोगों के वहाँ से चुनाव लड़ने के कारण वहाँ 2019 चुनावों में देश भर से इन्फ्लुएंसर आये थे इसलिए उसका नाम नहीं सुना हो किसी ने ऐसा भी नहीं है।
जब बिहार में मौजूद ऐसे ही सराय नाम वाली जगहों के बारे में पूछा तो पता चला कि ऐसी एक नहीं अनेकों जगहें हैं। पटना के पास हाजीपुर (वैशाली जिला) में सराय नाम की ही एक जगह है। नालंदा जिले में सोहसराय, एकान्गड़सराय, और नूरसराय हैं। समस्तीपुर में दलसिंहसराय है। लक्खीसराय नाम की जगह है। बंगाल का द्वार यानी द्वार-बंगा के अपभ्रंश से बने दरभंगा में पंडासराय, लहेरियासराय, तारसराय, खाजासराय, और भटियारीसराय केवल एक जिले में हैं। यानि ऐतिहासिक रूप से यात्रियों का आना-जाना इस इलाके से नहीं था, ऐसा बिलकुल नहीं है। धार्मिक पर्यटन के लिए ही यहाँ से लोग गुजर रहे होते थे, ऐसा तो बिलकुल भी नहीं है क्योंकि चार धाम के लिए निकले लोगों का रास्ता ये सब हो, ऐसा तो नहीं हो सकता। व्यापारी आयें, रुकें, इसके लिए सराय का होना आवश्यक था। व्यापारी ही आते थे, ये इससे भी पता चल जाता है कि नदियों के किनारे घाट का नाम मनिहारी घाट होता है। मनिहारी चूड़ियाँ इत्यादि बेचने वाले होते थे और बिहार क कुछ इलाके लाह इत्यादि की चूड़ियाँ बनाने के लिए भी जाने जाते थे।
अब सवाल उठता है कि अब स्थिति क्या है? परम्परागत सराय वाला तरीका तो चलो भूल गए, लेकिन उसकी जगह नया होटल/मोटेल बनाना तो सीखना था। क्या बिहार की सरकारी नीतियों में हुए बदलावों ने इसके बारे में सोचा? जवाब सीधा और स्पष्ट सा है, जो सबको पता भी है। पर्यटन पर एक नीति बनकर 2023 में आई है, जिसकी चर्चा पिछले वर्ष सुनाई दी। होटलों के न होने से क्या होगा? बड़े साधारण से उदाहरण से इसे समझ सकते हैं। बिहार में विकास की बात होती है तो नालंदा-राजगीर के अलावा कुछ सुनाई नहीं देगा। रोपवे बनेगा तो नालंदा-राजगीर में, गंगा नदी से पानी निकालकर लाया जाएगा तो नालंदा-राजगीर में, जो भी होगा नालंदा-राजगीर में होगा। अब पर्यटक अगर इन जगहों पर बौद्ध तीर्थों के दर्शन के लिए आयें भी तो क्या होता है? दिन तो वो इन जगहों पर गुजार लेंगे मगर शाम होते ही वापस वाराणसी रवाना हो जायेंगे। बिहार में ठहरे ही नहीं, पटना से करीब तीन घंटे सफ़र करके वाराणसी पहुँच गए और ठहरे वहाँ।
जो पर्यटक जितने अधिक समय बिहार में ठहर रहा होता, उससे सरकार को राजस्व और स्थानीय व्यापारियों को मुनाफा उतना ज्यादा होता। होटल का बिल बिहार में दे रहा होता, रेस्तरां इत्यादि में खाना खाया होता, टैक्सी इत्यादि की सेवाएँ ली होती, हो सकता है घर ले जाने के लिए स्थानीय कलाकृतियाँ या हस्तशिल्प खरीद लिए होते। और कुछ नहीं होता तो एक-दो दिन बिहार में रहता, यहाँ की संस्कृति देख लेता तो वापस जाकर बिहार के बारे में चार अच्छी बातें ही बोलता, कुछ गुडविल ही बढ़ता राज्य का। लेकिन नहीं, व्यवस्था ने उसे खदेड़ कर बिहार के बाहर या तो वाराणसी (यू.पी.) भगा दिया या फिर देवघर (झारखण्ड)। राजधानी पटना से करीब तीन सौ किलोमीटर दूर पुर्णियां जैसे क्षेत्रों को देख लें तो वहाँ स्थिति और बिगड़ी दिखेगी। यात्री और पर्यटक पहले तो वहाँ आने के लिए एअरपोर्ट ही पटना के बदले बागडोगरा (बंगाल) के एअरपोर्ट से आया। वहीँ से टैक्सी ली तो फिर से बिहार के हिस्से से आय गयी। शायद ठहरेगा भी नहीं पुर्णियां में, वापस शाम में बंगाल चला जायेगा, उसका नुकसान अलग से।
साधारण यात्रियों और पर्यटकों के लिए जो होटल बिहार में हैं, उनसे चलिए उनका काम चल भी जायेगा मगर जो बड़े व्यापारी, विदेशों से आने वाले निवेशक हैं, उनका क्या? समाजवाद नाम के कोढ़ ने पूंजीपतियों से दूरी रखने की गलत आदत तो सिखा दी, लेकिन अब तो ये समझ में आने लगा है कि निवेश के बिना रोजगार पैदा करना, राज्य की उन्नति, संभव ही नहीं। मान लो बिल गेट्स को किसी तरह राज्य में आमंत्रित कर ही लिया, टाटा-बिड़ला वालों को बुलवा लिया तो उन्हें ठहराओगे कहाँ? राज्य में एक भी फाइव स्टार होटल तो है नहीं! उससे नीचे में ये लोग रुकेंगे या शाम में पटना से निकलकर वापस वाराणसी चल देंगे? ऐसे बड़े होटल एक दिन में बन जाने वाले भी तो नहीं होते हैं। पाँच वर्ष निर्माण में लगेंगे, फिर स्टाफ-कर्मचारी और साजो-सामान के साथ शुरू होने का समय लगेगा। अगर फ़ौरन बेहतर होटल और रेस्तरां बनाने पर ध्यान नहीं दिया तो ऐसे लोग जो देश-दुनियां को बता सकें कि बिहार में ये अच्छा होता है, वो आयेंगे-रुकेंगे कहाँ, और आपके बारे में चार अच्छी बातें कहाँ से करेंगे!
हाँ जहाँ तक सपने देखने का प्रश्न है, आप “हर थाली में बिहारी व्यंजन” का जुमला उछाल सकते हैं। हम भी सुनकर कह देंगे – सब बातें हैं बातों का क्या?