कीव शहर यूक्रेन का एक हिस्सा है। किसी ज़माने में ये सोवियत रूस का इलाका हुआ करता था। जब अगस्त में वहां उमस वाली गर्मियों का मौसम होता है उसी अगस्त का किस्सा है, हां साल था 1942। नाज़ियों ने कीव पर कब्ज़ा कर लिया था, हारे हुए शहर के पास गर्व करने के लिए बस उसकी फुटबॉल टीम बची थी। ऐसे ही एक दिन 6 अगस्त, 1942 को ज़ेनिथ स्टेडियम में कीव की टीम FC Start और जर्मन लुफ्तवाफ्फे की टीम Flakelf आमने सामने थी। जर्मन टीम को लगभग अजेय समझा जाता था, और भूखे फटेहाल Dynamo Kiev के भूतपूर्व खिलाड़ियों का तो गुजारा ही एक बेकरी में काम कर के चल रहा था, ऐसे में उनके जीतने की कोई संभावना भी नहीं दिखती थी।
प्रचार तंत्र में नाज़ियों का तरीका आज भी सिखाया जाता है, और इस मैच की खबर भी सारे शहर में फैला दी गई थी। जगह जगह मैच के पोस्टर थे, रेडियो पर भी काफी बखान किया गया था। इस से पहले के मैचों में जर्मन टीमों की जो दुर्दशा हुई थी उसकी खबर को अच्छे से दबा दिया गया था, लेकिन इस बार “अभिजात्य” और “उन्नत बौध्दिक” वर्ग की ऐसी बेईज्ज़ती न हो इसके भी पुख्ता इंतज़ाम किये गए। मैच शुरू होने से पहले ही एक SS Officer आया और उसने साफ़ रुसी भाषा में FC Star के खिलाडियों को बताया की, उसे पता है की FC Start एक अच्छी टीम है, लेकिन उन्हें नियमों का पालन करना होगा। साथ ही अपने प्रतिद्वंदी टीम को उनके जर्मन तरीके से “Hail Hitler” कहकर ही अभिवादन भी करना होगा। शब्दों के बीच का मतलब साफ़ था, सिर्फ मैच शुरू होने से पहले ही उन्हें हिटलर का जयघोष नहीं लगाना था, बल्कि मैच हार जाने में ही उनकी भलाई थी।
ये छुपी हुई सी मिश्री में लिपटी धमकी भी ऐसे ही नहीं आई थी। दरअसल 1941 में जब कीव पर जर्मन फौजों का कब्ज़ा हुआ तो गुजारा चलाने के लिए Dynamo टीम ने एक बेकरी में नौकरी कर ली थी। वहीँ थोड़ी सी खाली जगह में वो लोग प्रैक्टिस भी करते थे। एक दिन जर्मन उनके पास आये और उन्हें ज़ेनिथ स्टेडियम में प्रैक्टिस करने का मौका दिया। बदले में उन्हें जर्मन फौज़ से चुने अफ़सरों के साथ “दोस्ताना” मैच खेलना था। मैच के लिए किव की टीम ने अपना नाम Start रखा, FC दरअसल नाज़ियों का शुरू किया हुआ Football Club का FC था। 12 जून 1942 को पहला मैच हुआ, जर्मन अच्छी शारीरिक स्थिति में थे, पहला गोल भी उन्होंने ही किया। हाफ टाइम होते होते Start की टीम ने 2-1 की बढ़त ले ली थी। इसपर भड़का हुआ एक जर्मन अफ़सर Start की टीम के ड्रेसिंग रूम में आ धमका, और खिलाडियों को “इतनी तत्परता से” न खेलने की हिदायत भी दे गया, साथ ही बात न मानने पर गोली मार देने की धमकी भी।
धमकी Start वालों को समझ में नहीं आई, थोड़ी ही देर में वो 4-1 की बढ़त ले चुके थे। इस से नाराज़ कीव का जर्मन कमांडेंट Major-General Eberhardt और उसका स्टाफ उठ कर चला गया और रेफरी ने मैच समय से पहले ही ख़त्म कर दिया। इस बार 17 जुलाई 1942 को जर्मन सेना ने एक बेहतर टीम से दोबारा Start का मैच करवाया। Start की टीम ने उन्हें 6-0 से हरा दिया। हंगरी की टीम MSG Wal को इसके बाद Start वालों ने दो दो बार (5-1 और 3-2 से) हराया।
जर्मनों ने इस बार यूक्रेनियों को सबक सिखाने की ठान ली। कभी न हारने वाली जर्मन टीम Flakelf को आमंत्रित किया गया।उत्सुक भीड़ के सामने दोनों टीमों ने एक दुसरे का अभिवादन किया। Flakelf के नारे “HeilHitler” का स्वागत जर्मनों की सहमती और ताली से हुआ। अगले ही पल FC Start केखिलाडियों ने अपने हाथ भी उसी अंदाज में उठाये। लेकिन जैसे ही हाथ सीने तक आये यूक्रेनि उद्घोष गूंजा “Fizcult Hura” !! जर्मन आत्मसम्मान के जख्मों पर यूक्रेनि भीड़ के जोरदार समर्थन ने और नमक छिड़क दिया।
रेफरी की सीटी बजते ही Flakelf की टीम टूट पड़ी, बॉल पर कम और Start के खिलाड़ियों पर ज्यादा। नाज़ी रेफरी ने सारी बेईमानियों को नज़रंदाज़ कर दिया। कराहते Start गोलकीपर पर से Flakelf की टीम ने पहला गोआल दाग दिया। चोट और मार पीट का सामना करती हुई Start की टीम फिर आगे बढ़ी| इस बार बेईमानियों को न देखना रेफरी के लिए भी मुश्किल हो गया। Start की टीम को फ्री kick मिली। Kuzmenko ने मौका नहीं गंवाया। दनदनाती हुई गेंद सीधा जर्मन गोलपोस्ट के अन्दर जा घुसी। थोड़ी ही देर बाद Start के winger Goncharenko ने लगभग पूरी जर्मन टीम को छकाते हुए दूसरा गोल दाग दिया। इंटरवल होने तक Start की टीम 3-1 से आगे थी।
मध्यांतर में दो लोग कीव की टीम से मिलने आये। पहला था Shevetsov, एक नाज़ी समर्थक, उसने कीव की टीम को अपना हित सोचने और मैच हार जाने की सलाह दी। दूसरा एक SS Officer था, उसकी चेतावनी सीधी और सपाट थी। मैच जीत जाने की स्थिति में कीव की टीम को नतीज़े भुगतने के लिए भी तैयार रहना था।
मध्यांतर के बाद दोनों टीमों ने दो दो गोल किये लेकिन कीव की टीम जर्मन टीम से अब भी आगे थी। यूक्रेनि समर्थकों ने घटिया खेलने और बेईमानी करने के लिए जर्मन टीम का जम के मज़ाक उड़ाया। Start वालों का मन इतने से नहीं भरा था, खेल के आखरी मिनटों में Klimeko जर्मन टीम और गोलकीपर को पार कर के गोलपोस्ट तक जा पहुंचा। मगर गोल दागने की बजाये वो हँसता हुआ गेंद लेकर अपने पाले में वापिस आ गया। इस तरस खा के गोल न करने की अदा पे तो, नाज़ी प्रचारतंत्र के Flakelf की तारीफों वाले सारे शोर शराबे की धज्जियाँ उड़ गयीं।
माना जाता है की इसके तीन दिन बाद कीव के खिलाडियों को एक और मैच में हार जाने का मौका दिया गया। मगर उसमे भी जर्मन हार गए। इसके बाद खिलाडियों को 16 अगस्त को गिरफ्तार कर के Korolenko Street के पुलिस हेड-क्वार्टर ले जया गया जहाँ उन्हें कई दिनों तक यातनाएं दी गई। Nikolai Korotkykh की मौत वहीँ हो गई। बाकि के दस खिलाडियों को Siretz के लेबर कैंप में भेज दिया गया। 1943 में जब वहां जर्मनों पर हमला हुआ तो कैंप के कमांडर ने हर तीसरे कैदी को गोली मारने का हुक्म दिया। फ्री किक से गोल दागने वाला Kuzmenko, गोलकीपर Trusevich, टीम का Klimenko जो गोल तक गेंद ले जा कर भी लौट आया था, उन्हें मार कर Babi Yar की खाइयों में फेंक दिया गया। तीन खिलाड़ी Goncharenko, Tyutchey और Sviridovsky किसी तरह भाग निकले और कीव में ही छुप कर रहते रहे। Stalin के ज़माने में नाज़ी होना और जर्मन टीम से फुटबॉल खेलना एक ही बात थी, इसलिए ये किस्सा भी खोया रहा। Stalin की मौत के बाद Game of Death के चर्चे दोबारा शुरू हुए।
रुसी किताबों में इसका अंत थोड़ा अलग है, उसमे कहते हैं की खिलाडियों को खेल के तुरंत बाद उनकी खेल की जर्सियों में ही गोली मार दी गई थी। बचपन में रुसी किताबों का मेला लगता था, वहीँ से खरीदी, “बच्चों की सौ कहानियां” नाम की किताब में ये किस्सा पढ़ा था। उसमें कीव के खिलाडियों ने जर्मनों की दी हुई वर्दी पहन रखी थी, खेल जीत लेने पर उन्हें एक नदी के किनारे खड़ा कर के गोली मार दी गई थी। गोली लगने पर भी Klimenko की मौत नहीं हुई थी, जर्मन सिपाही उसे घसीट कर पानी में फेंकने चले तो उसने कहा, मैं अपनी भूल का प्रायश्चित खुद करूँगा। नाज़ी सिपाहियों ने पुछा, कौन सी भूल ? Klimenko ने कहा, विदेशी वर्दी पहनने की भूल, और खुद ही पानी में कूद गया !
ये किस्सा फिर से याद आ गया, इसलिए की यूक्रेन भी एक हारा हुआ मुल्क था, भारत भी कई बार हारा है। वहां भी घर के ही लोग हार मान लेने की सलाह देने आ जाते थे, apologist यहाँ भी कम नहीं। जीत और हार में वहां जीवन और मरण का प्रश्न था, यहाँ संस्कृत के जाते ही सांस्कृतिक जड़ों के कट जाने ख़तरा। चंद लोगों के सर पे पूरे देश के स्वाभिमान का वजन वहां भी था, कुछ ही लोगों के कंधे पर संस्कृत को बचाए रखने का बोझ यहाँ भी है। प्रचार तंत्र वहां भी कहता था की ये लड़ाई जीती नहीं जा सकती, शत्रु बहुत प्रबल है, तुम कमज़ोर, यही शोर यहाँ भी आता है।
एक बार फिर से Game of Death का मध्यांतर हुआ है लगता है। जर्सी पहले ही उतार दें, या फिर से कर लें विदेशी वर्दी पहनने की भूल ?