कार्ल मार्क्स, जिन्हें एम.एन. राय ने झूठा पैगम्बर कहा है, ने लिखा है— “सिद्धांत की अंतिम परख व्यवहार है’
प्रसिद्ध लेखक श्री अनंत विजय की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ एक प्रकार से कार्ल मार्क्स के इस बयान की ही अत्यंत विस्तृत फलक पर पड़ताल करती है। यह पुस्तक मार्क्सवाद के दोमुँहेपन का रेशा-रेशा उधेड़कर ‘अर्धसत्य’ की तह में छिपे उसके झूठ का कच्चा चिट्ठा खोलती है। नौ अध्यायों में विभक्त यह पुस्तक वामपंथियों की ‘बौद्धिक बेईमानियों’ और उसके द्वारा फैलाए गए छद्म फासीवाद पर विस्तार से प्रकाश डालती है। वामपंथ द्वारा फेमिनिज्म और महिला सशक्तिकरण के नाम पर प्रतिदिन अभियान चलाए जाते हैं। गोष्ठियाँ और सम्मेलन करके स्त्री अधिकारों पर लच्छेदार भाषण दिए जाते हैं किंतु वास्तव में उनके ये कृत्य केवल दिखावटी होते हैं, क्योंकि विचारधारा के उन झंडाबरदारों में पुरुषवादी मानसिकता सदा हावी रहती है।
इस मानसिकता को उजागर करने के लिए अनंतजी सन 1917 की सोवियत क्रांति का उल्लेख करते हुए लिखते हैं— “उस समय वहाँ (सोवियत में) ‘एक गिलास पानी’ का मुहावरा प्रचलित था। अर्थात् जब प्यास लगे पानी पी लो और जब शरीर की मॉंग हो तो किसी के भी साथ पूरा कर लो।” उनके अनुसार स्वयं फिदेल कास्त्रो ने विवाहित होते हुए ‘नटालिया’ नामक अन्य विवाहित स्त्री से न केवल संबंध बनाए प्रत्युत एक बच्चे के पिता भी बने (बाद में उसे भुला दिया)। कास्त्रो का यह कृत्य ‘एक गिलास पानी’ के मुहावरे का ही प्रत्यक्षीकरण था।
 
इसी प्रकार, “चीन की कम्युनिस्ट सरकार के अधिकारियों ने सीमिंग (एक स्थल) की एक 36 वर्षीय स्त्री का गर्भपात करने के लिए पहले उसे लात-घूँसों से मारा, बाद में हाथ-पैर बॉंधकर उसके सिर को दीवार से टकराया। ऐसा करके भी जब वे सफल नहीं हुए तो ‘आईयिंग’ नामक उस महिला का जबरन ऑपरेशन कर दिया गया था। चीन को आदर्श मानने के कारण भारतीय वामपंथ का भी यही हाल रहा। यहॉं के कॉमरेडों ने भी महिला विरोधी रवैये के चलते कैफ़ी आज़मी की पत्नी शौक़त कैफ़ी को गर्भपात कराने का आदेश दिया। उल्लेखनीय है कि उस समय शबाना आजमी गर्भ में थी।( पृष्ठ284)
भारत में वामपंथ की नींव डालने वाले मानवेंद्रनाथ राय ने ‘नव मानववाद’ में लिखा है— “साम्यवाद अपने साथ आतंक का लंबा शासन, जकड़बंदी, स्वतन्त्रता का दमन, संभवतः गृह-युद्ध और अव्यवस्था लाता है।” इस कथन के आलोक में सन पचहत्तर के आपातकाल की वह घटना स्मृति में आती है जब दिल्ली में भीष्म साहनी की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ बैठक करके आपातकाल का समर्थन ही नहीं करता बल्कि उसे ‘अनुशासन पर्व’ भी घोषित करता है। (पृष्ठ 15) यह इस विचारधारा का विरोधभास ही है कि सभा में हाथी की तरह चिंघाड़कर ‘अभिव्यक्ति’ और ‘आजादी’ देने का मोर्चा खोलते हैं किंतु बंद कमरे में उसी आजादी और अभिव्यक्ति का गला घोंटने वालों को अनुशासन के अमलदार बताते हैं।
वामपंथी भले ही नरेंद्र मोदी और बीजेपी को मीडिया विरोधी कहे किन्तु तथ्य यह है कि वामपंथियों के चहेते नेहरूजी ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने की वकालत की। प्रेस को नियंत्रण करने के पक्ष में उन्होंने संविधान सभा में बहस की, मगर श्यामाप्रसाद मुखर्जी के घोर विरोध के कारण वे सफल नहीं हो पाए। आज यदि साम्प्रदायिकता विष-बेल बनकर राष्ट्रवाटिका में छाई है तो उसका कारण भी वामपंथ द्वारा किया गया धर्म विशेष का तुष्टिकरण है। सब जानते हैं कि ‘लीग’ में कट्टरता पनपाने में इनके द्वारा किए गए तुष्टिकरण का बड़ा हाथ था। बानगी के तौर पर फिलिफ़ स्प्रैट की ‘साम्यवाद के पार’ नामक पुस्तक उल्लेखनीय है। जिसमें वे लिखते हैं— “मुस्लिम लीग से हमारी सहानुभूति है। … विभाजन और अखंडता मामूली बाते हैं। हमें पृथक मतदान का सिद्धांत भी स्वीकार है तथा हम अल्पसंख्यकों के दूसरे संरक्षणों का समर्थन करते हैं।”(16)
स्वतंत्रता-पूर्व शुरू किया गया यह तुष्टिकरण किस प्रकार बदस्तूर जारी रहा, उसका उदाहरण देते हुए अनंतजी पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार द्वारा अट्ठाईस अप्रैल सन 1989 को जारी किए गए उस आदेश का उल्लेख करते हैं जिसमें “राज्य के माध्यमिक विद्यालयों के सभी प्रधानाध्यापकों को निर्देश दिया गया था कि मुस्लिम काल की कोई आलोचना व निंदा नहीं होनी चाहिए, मुस्लिम शासकों और आक्रमणकारियों द्वारा मंदिर तोड़े जाने का जिक्र भी नहीं होना चाहिए।”
संसार में समानता और स्वतन्त्रता लाने की बात करने वाले वामपंथ ने साहित्य जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भी घोर वितंडावाद पनपाया। विचारधारा की जड़ें जमाने के लिए लालायित इन लोगों ने सेलेक्टिव चुप्पियों का घटाटोप निर्मित किया। सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन को जान से मारने की धमकी देने वाले कट्टरतापंथियों का विरोध न करके (और एम.एफ. हुसैन का समर्थन करके) वामपंथियों ने यह सिद्ध कर दिया कि वे अब विवेकहीन हो चुके हैं। तथा ‘प्रतिरोध’ करने का उनका दावा केवल एक जुमला है जो भाषणों में नत्थी किया जाता है। स्वयं को ‘महान’ और ‘करेक्ट’ समझने के भ्रम में वामपंथ के लाडले कुछ लेखकों ने राजनाथ सिंह के साथ मंच साझा करने के लिए नामवर सिंह को तथा राकेश सिन्हा के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए मंगलेश डबराल को गरियाकर ‘बौद्धिक छुआछूत’ का खुला खेल खेला।
इन्होंने कबीर और तुलसी के बीच वैचारिक जंग छेड़कर भारतीय संस्कृति की ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ की भावना से खिलवाड़ किया। कृष्णा सोबती द्वारा शोध छात्रा (जिसने सोबती पर किये शोध के लोकार्पण में सच्चिदानंद जोशी व विजय क्रांति को आमंत्रित कर दिया) को केस करने की धमकी देना उनकी ‘वैचारिक असहिष्णुता’ की पोल खुल जाती है। अनंतजी की यह पुस्तक भारतीय वामपंथ के सबसे मजबूत मोर्चे (बौद्धिक क्षेत्र) पर तर्क-तथ्य और सत्य के त्रिशूल से करारा प्रहार कर उसके खोखलेपन को उजागर करती है।

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