जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 06 अक्टूबर::

आश्विन माह में मनाई जाने वाली शारदीय नवरात्र 03 अक्टूबर से शुरू हो गई है। नवरात्र में मां दुर्गा के नौ अलग-अलग रूपों की पूजा होती है। हर दिन माता के खास रूप की पूजा का विधान है। शारदीय नवरात्र के पहले दिन मां शैलपुत्री, दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी, तीसरे दिन चंद्रघंटा और चौथे दिन कुष्मांडा की आराधना हो चुकी है। अब पांचवें दिन मां स्कंदमाता की पूजा होनी है।

मां दुर्गा की भक्ति, साधना और पूजा-पाठ का महापर्व उत्सव को शारदीय नवरात्र कहा जाता है। नवरात्र के ये नौ दिन पूरे हर्षोल्लास से मनाए जाते हैं। मान्यता है कि नवरात्र के नौ दिनों में जो भी देवी मां की पूजा सच्चे मन से करता है उसे मां दोनों हाथों से आशीष देती हैं।

नवरात्र के पांचवें दिन मां स्कंदमाता की अराधना होती है। भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र कार्तिकेय को स्कंद के नाम से भी जाना जाता है। भगवान स्कंद कुमार [कार्तिकेय] की माता होने के कारण दुर्गा जी के इस पांचवें स्वरूप को स्कंद माता नाम प्राप्त हुआ है।

भगवान स्कंद जी बालरूप में माता की गोद में बैठे होते हैं इस दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित होता है। स्कंद मातृ- स्वरूपिणी देवी की चार भुजाएं हैं, ये दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कंद को गोद में पकड़े हैं और दाहिनी निचली भुजा जो ऊपर को उठी है, उसमें कमल पकडा हुआ है। मां का वर्ण पूर्णतः शुभ्र है और कमल के पुष्प पर विराजित रहती हैं । इसी से इन्हें पद्मासना की देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है। स्कंदमाता सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी है। इनकी उपासना करने से साधक अलौकिक तेज की प्राप्ति करता है। यह अलौकिक प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता है। एकाग्रभाव से मन को पवित्र करके मां की स्तुति करने से दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है।

मां स्कंदमाता की पूजा करने से संतान सुख मिलता है। बुद्धि और चेतना बढ़ती है। कहा गया है कि देवी स्कंदमाता की कृपा से ही कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य और मेघदूत जैसी रचनाएं हुई हैं।

मां स्कंदमाता शेर की सवारी करती हैं जो क्रोध का प्रतीक है और उनकी गोद में पुत्र रूप में भगवान कार्तिकेय हैं, पुत्र मोह का भी प्रतीक है। देवी का ये रूप हमें सीखाता है कि जब हम ईश्वर को पाने के लिए भक्ति के मार्ग पर चलते हैं तो क्रोध पर हमारा पूरा नियंत्रण होना चाहिए, जिस प्रकार देवी शेर को अपने काबू में रखती है। उनकी गोद में पुत्र रूप में भगवान कार्तिकेय हैं जो पुत्र मोह का प्रतीक है, मां सिखाती हैं कि सांसारिक मोह-माया में रहते हुए भी भक्ति के मार्ग पर चला जा सकता है, इसके लिए मन में दृढ़ विश्वास होना जरूरी है।

मां स्कंदमाता हिमायल की पुत्री पार्वती ही हैं। इन्हें गौरी भी कहा जाता है। भगवान स्कंद को कुमार कार्तिकेय के नाम से जाना जाता है और ये देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति थे। इनकी मां देवी दुर्गा थी और इसी वजह से मां दुर्गा के स्वरूप को स्कंदमाता भी कहा जाता है। मान्यता है कि जिस साधक पर स्कंदमाता की कृपा होती है उसके मन और मस्तिष्क में अपूर्व ज्ञान की उत्पत्ति होती है। मां स्कंदमाता की पूजा भी वैसी ही होती है जैसी ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा और अन्य देवियों की होती है।

मान्यता है कि मां स्कंदमाता की पूजा करने से बाल रूप स्कंद कुमार की भी पूजा पूरी मानी जाती है। मां स्कंदमाता की पूजा करते वक्त नारंगी रंग के वस्त्र धारण करना चाहिए और नारंगी रंग के कपड़ों और श्रृंगार सामग्री से ही माता को सजाना चाहिए। इस रंग को ताजगी का प्रतीक भी माना जाता है। स्कंदमाता को नैवेद्य में केला प्रिय हैं, इसलिए उन्हें केले का भोग लगाना चाहिए और बाद में इस भोग को ब्राह्मण को दे देना चाहिए। ऐसा करने से साधक का स्वास्थ्य ठीक रहता है। इसके साथ ही खीर और सूखे मेवे का भी नैवेद्य चढ़ाया जाता है।

भारत में स्कंदमाता की दो मंदिर प्राचीन मंदिर है । वाराणसी के पुरोहितों और ज्योतिष के जानकारों के अनुसार वाराणसी के जगतपुरा क्षेत्र के बागेश्वरी देवी मंदिर परिसर में दुर्गा के पांचवे स्वरूप मां स्कंदमाता का मंदिर है। देवी के इस रूप का उल्लेख काशी खंड और देवी पुराण में मिलता है। काशी की बुरी शक्तियों से रक्षा करती हैं। मान्यता है कि एक समय देवासुर नाम के राक्षस ने वाराणसी में संतों आम लोगों पर अत्याचार शुरू कर दिया था। इस पर मां स्कंदमाता ने उस राक्षस का विनाश कर दिया। इस घटना के बाद यहां माता की पूजा की जाने लगी। मान्यता है कि माता यहां विराजमान हो गईं और काशी की बुरी शक्तियों से रक्षा करती हैं।

दूसरा मंदिर, विदिशा (मध्य प्रदेश) में पुराने बस स्टैंड के पास सांकल कुआं के पास दुर्गाजी का विशाल मंदिर है। इसकी स्थापना 1998 में हुई थी, यहां माता दुर्गा का स्कंदमाता स्वरूप विराजमान है। मंदिर के पुजारी के अनुसार 40 से 45 साल पहले इस जगह पर झांकी लगाई जाती थी।

नवरात्र में भोजन के रूप में केवल गंगा जल और दूध का सेवन करना अति उत्तम माना जाता है, कागजी नींबू का भी प्रयोग किया जा सकता है। फलाहार पर रहना भी उत्तम माना जाता है। यदि फलाहार पर रहने में कठिनाई हो तो एक शाम अरवा भोजन में अरवा चावल, सेंधा नमक, चने की दाल, और घी से बनी सब्जी का उपयोग किया जाता है। मां स्कंदमाता का मंत्र है –

या देवी सर्वभू‍तेषु स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।

पूजा मंत्र

‘ॐ स्कन्दमात्रै नम:।।’
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