उच्चतम न्यायालय ने 5 अगस्त को कहा कि दिल्ली नगर निगम में नगर प्रशासन के विशेष ज्ञान वाले 10 व्यक्तियों को नामित करने का दिल्ली के उपराज्यपाल का अधिकार उनके कार्यालय से जुड़ा एक वैधानिक कर्तव्य है और वह मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बाध्य नहीं हैं।
न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा द्वारा लिखे गए फैसले में न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने कहा कि एलजी की शक्ति दिल्ली नगर निगम अधिनियम 1957 की धारा 3(3)(बी)(1) से ली गई है।
यह अधिनियम, एक संसदीय कानून है, जिसे 1993 में संशोधित कर 10 विशेषज्ञ व्यक्तियों को नामित करने की शक्ति प्रदान की गई।
दो न्यायाधीशों की पीठ ने संविधान पीठ के एक फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि दिल्ली सरकार की कार्यकारी शक्ति संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य और समवर्ती सूची के विषयों से निपटने वाले संसदीय कानून के अनुरूप होगी।
न्यायमूर्ति नरसिम्हा दिल्ली की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता एएम सिंघवी से सहमत नहीं थे, कि एलजी की शक्ति शब्दार्थिक और “अतीत का अवशेष” दोनों है।
श्री सिंघवी ने तर्क दिया था कि राष्ट्रीय राजधानी में लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार है, जिसे उपराज्यपाल कार्यालय के हस्तक्षेप के बिना अपना नगरपालिका प्रशासन चलाने की अनुमति दी जानी चाहिए।
अदालत ने कहा, “यह संसद द्वारा बनाया गया कानून है… कानून के तहत उपराज्यपाल को शक्ति का प्रयोग करना आवश्यक है।”
अदालत के समक्ष कानूनी प्रश्न यह था कि क्या उपराज्यपाल अपने कार्यालय के वैधानिक कर्तव्य के तहत 10 व्यक्तियों को नामित कर सकते हैं या क्या वह मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे हैं।
न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने कहा, “धारा 3(3)(बी)(1) के तहत विशेष ज्ञान वाले 10 व्यक्तियों के नाम देने की वैधानिक शक्ति पहली बार एलजी को डीएमसी अधिनियम, 1957 में 1993 के संशोधनों के माध्यम से दी गई थी ताकि नगरपालिका प्रशासन से संबंधित संविधान के भाग 9ए में अनुच्छेद 239एए और 239एबी (दिल्ली सरकार की स्थापना से संबंधित प्रावधान) में संवैधानिक परिवर्तनों को शामिल किया जा सके।”
एलजी को नामांकन करने की शक्ति डीएमसी अधिनियम, जो एक संसदीय कानून है, में स्पष्ट रूप से दी गई है।
अदालत ने कहा, “एलजी को कानून के अनुसार काम करना है, न कि मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से निर्देशित होना है।”