पत्रकारिता का स्तर गिराने के लिए अक्सर याद किये जाने वाले चैनल लल्लनटॉप के सौरभ द्विवेदी एक बार फिर चर्चा में हैं। न्यूज और एंटरटेनमेंट के बीच का अंतर मिटा देने में उनके अतुलनीय योगदान को निर्विवाद रूप से सभी स्वीकारते हैं। बिना होमवर्क किये सवाल पूछने, उत्तर देते सज्जन युवाओं को अपमानित करने जैसे प्रयासों में उनके चैनल का ही नहीं, उनका व्यक्तिगत योगदान भी रहा है। अतिथियों को, अपने से बड़े लोगों को पलटकर जवाब न देने की जो सभ्यता, संस्कार के रूप में बचपन से ही बिहार में सिखाई जाती है, उसका नुकसान भी इस वीडियो में दिखाई दे जाता है। सौरभ द्विवेदी धमकाकर मुंगेर को केवल योग के लिए प्रसिद्ध बताना चाहते हैं, जबकि स्थानीय लोग इतिहास से अधिक परिचित होते हैं।
मुंगेर में बंदूकें बनने का इतिहास सीधा अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत में यानी मीर कासिम के दौर से शुरू होता है। इसकी तुलना में मुंगेर के योग विद्यालय (गुरुकुल) की शुरुआत 1913 के आस पास हुई थी। अट्ठारहवीं शताब्दी से लेकर 1969 तक मुंगेर बंदूकें/पिस्तौल बनाने के लिए विख्यात रहा है। पहले विश्व युद्ध के समय जब योग विद्यालय की स्थापना ही हो रही थी, उस समय मुंगेर को सिटी ऑफ गन्स कहा जाता था। स्थानीय हथियार निर्माता विश्व भर के लोगों को हथियार मुहैया करवा रहे थे। भारत की स्वतंत्रता के काफी बाद तक ऐसा ही चलता रहा। भारत की 60 बंदूकें बनाने वाली फैक्ट्रियों में से 36 केवल मुंगेर के इलाके में थीं। अभी इनमें से चार बंद होने के कगार पर हैं और उद्योगों पर बिहार सरकार का जितना ध्यान रहता है, और भी कई फैक्ट्रियां अच्छी स्थिति में नहीं हैं।https://www.facebook.com/anandydr/videos/310602098752256
नयी फैक्ट्रियां तो बिहार की सरकारों ने नहीं ही बनाई, जो स्थापित उद्यम थे, उनको नष्ट करने का भी प्रयास जंगलराज/लालूराज से पहले के दौर से ही होता रहा। देश की रक्षा के लिए हथियार यहाँ बनते हैं, इसपर शर्मिंदा करने की कोशिश सौरभ द्विवेदी ने भी की। थोपे हुए गाँधीवाद को शायद योग, माफ़ कीजियेगा, योगा के लिए फेमस मुंगेर कहना ज्यादा अच्छा लगा होगा। हमारे हिसाब से तो जो वो युवा बता रहा था, वो बिलकुल सही था। बंदूकों की सरकारी/निजी फैक्टरियों से जो वैध रोजगार आता, उसके बदले उन्हें जबरन बेरोजगार करके, परंपरागत उद्यम को नष्ट करके किसी और नयी चीज को स्थापित करने के प्रयास में महानता क्या है? जहाँ तक इन्नोवेशन, नयी तकनीक के अविष्कार का प्रश्न है, आज जिस ए.के.47 को विश्व भर में प्रयोग किया जाता है, उसका अविष्कार करने वाला क्लाश्निकोब किसी बड़ी संस्था के आर एंड डी विभाग का कोई इंजिनियर नहीं, बल्कि एक कम पढ़ा लिखा पूर्व सैनिक था।
जिस जगह टैलेंट पूल मौजूद है, वहीँ इंडस्ट्री स्थापित करने की बुद्धिमानी दिखाने के बदले उद्यम के लिए शर्मिंदा करने की धूर्ततापूर्ण कोशिशों वाली पीत-पत्रकारिता के लिए सौरभ द्विवेदी और लल्लनटॉप की कहानियों को मीडिया संस्थानों में केस स्टडी की तरह पढ़ाया जाना चाहिए। भविष्य के पत्रकारों, एंकर, न्यूज़-रीडर, संवाददाता आदि को पता तो रहे कि क्या नही करना है!